इच्छित वस्तुओं का संयोग और वियोग ही सुख और दुःख का कारण है

इच्छित वस्तुओं का संयोग और वियोग ही सुख और दुःख का कारण है

जैसे शरीर कभी एक जैसा नहीं रहता और सदैव अपनी स्थिति बदलता रहता है, वैसे ही इन्द्रियाँ और मन, जो इन विषयों और समस्त सांसारिक पदार्थों को देखते हैं, कभी एक जैसे नहीं रहते। इनका संयोग और वियोग सुख और दुःख लाते हैं। इच्छित वस्तुओं का संयोग सुख और वियोग दुःख देता है। अवांछित वस्तुओं का संयोग दुःख और वियोग सुख देता है। वस्तुएँ क्षणभंगुर हैं और उनसे होने वाले सुख-दुःख भी क्षणभंगुर और अनित्य हैं।

सुख और दुःख अलग-अलग हैं, परंतु द्रष्टा (आत्मा) उनसे भिन्न है

वस्तुओं का आरंभ और अंत होता है, वे आती हैं और जाती हैं। वे स्थायी नहीं हैं; वे अपनी रचना से पहले मौजूद नहीं थीं और उनके विनाश के बाद भी नहीं रहेंगी। बीच में भी वे एक समान नहीं रहतीं, प्रतिक्षण बदलती रहती हैं, इतनी तेजी से कि कोई उन्हें एक ही रूप में दो बार नहीं देख सकता। इसलिए उन्हें ‘अनित्य’ कहा गया है। परंतु तुम (आत्मा) वैसे ही रहते हो, अप्रभावित और शाश्वत। इसलिए बदलाव की स्थिति को सहन करो। संयोग और वियोग से सुखी या दुःखी मत होओ। सुख और दुःख अलग-अलग हैं, परंतु द्रष्टा (आत्मा) उनसे भिन्न है। परिवर्तन को स्थूल शरीर से अलग होकर देखने से अपनी भिन्नता (अलगाव) का अनुभव होता है।

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एक क्षण के लिए भी कोई चीज स्थिर नहीं रहती

अधिक सर्दी से वृक्ष सूख जाता है और अधिक गर्मी से भी वृक्ष सूख जाता है। इस प्रकार सर्दी और गर्मी दोनों का परिणाम एक ही है। इसी प्रकार अनुकूलता और प्रतिकूलता भी एक ही हैं। इसलिए दोनों को सहन करने का उपदेश ज्ञानियों ने दिया है। सुख, दुःख, हर्ष, शोक, राग, द्वेष, इच्छा, क्रोध आदि क्षणभंगुर और परिवर्तनशील हैं, परंतु तुम (आत्मा) वैसे ही रहते हो। मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यह है कि वह बदलती हुई अवस्था को देखता है, परंतु स्वयं को नहीं। वह अवस्था को स्वीकार करता है, परंतु स्वयं को नहीं। अवस्था पहले नहीं थी, बाद में भी नहीं होगी, और जब भी अवस्था को देखा जाता है, तो उस समय भी वह नहीं होती, क्योंकि वह हर पल बदलती रहती है। एक क्षण के लिए भी कोई चीज स्थिर नहीं रहती।

ध्यान देने वाली बात यह है कि अवस्था कभी एक सी नहीं रहती और तुम कभी अनेक नहीं होते। अवस्था विलीन हो जाएगी, लेकिन तुम (आत्मा) सदा रहोगे। ध्यान देने वाली बात है कि दृश्य के साथ जुड़ने से आत्मा द्रष्टा कहलाती है (शरीर को ही अपना मान लेने पर) और दृश्य के साथ जुड़े बिना आत्मा का अस्तित्व ज्यों का त्यों बना रहता है (शरीर से स्वयं को अलग करने पर)।

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डिस्क्लेमर: इस लेख में कोई जानकारी नही दी गई है बल्कि धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक ग्रंथों, व्यक्तिगत चिंतन और मनन के द्वारा एक सोच है प्रस्तुत की गई है। प्रत्येक व्यक्ति की सोच इस संबंध मे अलग हो सकती है adhyatmikaura.in प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज की सोच का सम्मान करता हैं। व्यक्ति को इस लेख से जुड़ी जानकारी अपने जीवन मे उतारने से पहले अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए।

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