समता का अर्थ है नित्ययोग का अनुभव। भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने तीन योग मार्गों का वर्णन किया है: कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। शरीर तीन प्रकार के होते हैं: स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इन तीनों शरीरों का भौतिक जगत के साथ गहरा संबंध होता है, और इन्हें सदैव दूसरों की सेवा में समर्पित करना चाहिए। यही कर्मयोग है।
इसे जरूर पढ़ें: परमात्मा प्राप्ति के लिए लिए केवल इच्छाशक्ति ही पर्याप्त है
इसके विपरीत, अपने स्वरूप में स्थित होकर स्वयं की खोज में लगना ज्ञानयोग है, और भगवान के प्रति स्वयं को समर्पित करना भक्तियोग है। इन तीनों योगों को सिद्ध करने के लिए, मनुष्य को तीन शक्तियां प्राप्त होती हैं:
- कार्य करने की शक्ति (बल),
- जानने की शक्ति (ज्ञान),
- मानने की शक्ति (विश्वास)।
करने की शक्ति निःस्वार्थ भाव से संसार की सेवा करने के लिए होती है, जो कर्मयोग है। जानने की शक्ति अपने स्वरूप को जानने के लिए है, जो ज्ञानयोग है। मानने की शक्ति भगवान को अपना मानकर और स्वयं को भगवान को समर्पित करने के लिए है, जो भक्तियोग है।
जिस व्यक्ति में करने की रुचि अधिक होती है, वह कर्मयोगी है। जिनमें अपने आप को जानने की जिज्ञासा प्रबल होती है, वह ज्ञानयोगी है। जिसका ईश्वर पर श्रद्धा-विश्वास अधिक होता है, वह भक्तियोग का अधिकारी है। ये तीनों ही मार्ग मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति की ओर ले जाते हैं।
इसे जरूर पढ़ें: शरीर नाशवान हैं लेकिन हम सभी (आत्मस्वरूप) अविनाशी हैं
इन तीनों के अलावा अन्य सभी मार्ग, जिनमें ईश्वर को पाने का प्रयास किया जाता है, इन तीनों के अंतर्गत ही आते हैं। यह जानना आवश्यक है कि सभी मार्गों का मुख्य उद्देश्य भौतिक जगत से प्राणी का संबंध विच्छेद करना है।
अतः जड़ता से संबंध विच्छेद करने पर सभी मार्ग स्वयं ही एक हो जाते हैं और इनमें कोई फर्क नहीं रहता। अंततः सभी मार्गों में एक ही समरूप परमात्मा तत्व की प्राप्ति होती है, जिसे नित्ययोग भी कहते हैं।
डिस्क्लेमर: इस लेख में कोई जानकारी नही दी गई है बल्कि धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक ग्रंथों, व्यक्तिगत चिंतन और मनन के द्वारा एक सोच है प्रस्तुत की गई है। प्रत्येक व्यक्ति की सोच इस संबंध मे अलग हो सकती है adhyatmikaura.in प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज की सोच का सम्मान करता हैं। व्यक्ति को इस लेख से जुड़ी जानकारी अपने जीवन मे उतारने से पहले अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए।
Leave a Reply