प्राप्ति के बाद वियोग: आखिर क्यों होती है यह स्थिति अधिक दुखदायी?

प्राप्ति के बाद वियोग: आखिर क्यों होती है यह स्थिति अधिक दुखदायी?

हमारे पास वर्तमान में जिन वस्तुओं का अभाव है, उनके बिना भी हमारा जीवन ठीक-ठाक चल रहा है। हम अपने दैनिक कार्यों को निभा रहे हैं और सामान्यतः खुश हैं। परंतु जब ये वस्तुएं हमें प्राप्त हो जाती हैं और फिर किसी कारणवश उनसे बिछड़ना पड़ता है, तो उनके खोने का दुख बेहद गहरा होता है। पहले, जब इन वस्तुओं का निरंतर अभाव था, वह उतना पीड़ादायक नहीं था जितना कि उनकी प्राप्ति के बाद उनका छिन जाना दुखदाई होता है। इस स्थिति के बावजूद भी मनुष्य उन वस्तुओं को पाने की लालसा में लगा रहता है, जिनका अभाव वह महसूस करता है। यह लोभ ही है जो हमें लगातार उन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है, जिनके बिना हमारा काम पहले भी चल रहा था।

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हमारे भीतर लोभ रूपी दोष न हो, तो वस्तुओं के मिलने से खुशी हो ही नहीं सकती

विचार किया जाए तो जिन वस्तुओं का अभी अभाव है, प्रारब्ध अनुसार उनकी प्राप्ति होने पर भी अंत में उनका अभाव ही रहेगा। इसका अर्थ यह है कि हमारी स्थिति वैसी ही बनी रहती है, जैसी कि वस्तुओं के मिलने से पहले थी। बीच के समय में, लोभ के कारण उन वस्तुओं को पाने के लिए हमें केवल परिश्रम और दुख ही सहना पड़ता है। वस्तुओं के मिलने से जो थोड़ी सी खुशी मिलती है, वह भी सिर्फ लोभ के कारण ही होती है। अगर हमारे भीतर लोभ रूपी दोष न हो, तो वस्तुओं के मिलने से खुशी हो ही नहीं सकती। इसी तरह, मोह रूपी दोष न हो तो कुटुंबियों से भी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती।

हमें अपने भीतर के लोभ और मोह रूपी दोषों से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए

तात्पर्य यह है कि संसार का सुख किसी न किसी दोष के कारण ही होता है। किसी भी दोष के न होने पर संसार में सुख हो ही नहीं सकता। यह लोभ ही है जो हमें भौतिक वस्तुओं या सांसारिक रिश्ते-नातों की तरफ आकर्षित करता है और इसी के कारण हमारे विचार संकुचित हो जाते हैं। हम इस दिशा में सोच ही नहीं पाते कि वस्तुओं का अभाव भी हमें उतना दुखी नहीं कर सकता है जितना उनका छिन जाना। वस्तुओं और संबंधों का आकर्षण ही हमें बार-बार दुख की ओर ले जाता है। इसलिए, हमें अपने भीतर के लोभ और मोह रूपी दोषों से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए, ताकि हम सच्चे सुख की प्राप्ति कर सकें और अनावश्यक दुख से बच सकें।

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डिस्क्लेमर: इस लेख में कोई जानकारी नही दी गई है बल्कि धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक ग्रंथों, व्यक्तिगत चिंतन और मनन के द्वारा एक सोच है प्रस्तुत की गई है। प्रत्येक व्यक्ति की सोच इस संबंध मे अलग हो सकती है adhyatmikaura.in प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज की सोच का सम्मान करता हैं। व्यक्ति को इस लेख से जुड़ी जानकारी अपने जीवन मे उतारने से पहले अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए।

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