जब तक मनुष्य की दृष्टि दूसरों के दोषों पर केंद्रित रहती है; तब तक उसे अपने दोष दिखाई नहीं देते

जब तक मनुष्य की दृष्टि दूसरों के दोषों पर केंद्रित रहती है; तब तक उसे अपने दोष दिखाई नहीं देते

कई लोगों का यह मानना होता है कि अगर हमारे मित्र या कुटुंब (परिवार के सदस्य) हमें दुख दें, तो वह दुख हमारे लिए उचित है। इसका कारण यह है कि इस दुख से हमारे पूर्व पापों का नाश होगा और हमारी आत्मा शुद्ध होगी। परंतु यदि हमारे मन में उस व्यक्ति के लिए वैरभाव है, तो वह वैरभाव हमारी आत्मा के साथ मरने के बाद भी रहेगा और हमें जन्म-जन्मांतर तक पाप करने के लिए प्रेरित करता रहेगा, जिससे हमारा पतन होगा। इस प्रकार के अनर्थकारी वैरभाव और मित्र या कुटुंब के साथ द्रोह करने वाले पाप से बचने का प्रयास क्यों नहीं करना चाहिए?

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जब तक मनुष्य की दृष्टि दूसरों के दोषों पर केंद्रित रहती है, तब तक उसे अपने दोष दिखाई नहीं देते

यहाँ एक महत्वपूर्ण बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि व्यक्ति की दृष्टि अक्सर अपने कुटुंब और मित्रों के दोषों पर तो जाती है, लेकिन वह यह नहीं देख पाता कि वह स्वयं भी अपने कुटुंब के मोह में बंधकर बोल रहा है। वह अपने आप को पाप से मुक्त मानता है, जबकि वह खुद भी दोषपूर्ण हो सकता है। इस कारण, ऐसे लोग अपने वास्तविक कर्तव्य को नहीं समझ पाते। यह एक सामान्य नियम है कि जब तक मनुष्य की दृष्टि दूसरों के दोषों पर केंद्रित रहती है, तब तक उसे अपने दोष दिखाई नहीं देते। इसके विपरीत, उसे यह अभिमान हो जाता है कि दूसरों में तो यह दोष है, परंतु मुझमें यह दोष नहीं है।

इस अवस्था में व्यक्ति यह सोचने में असमर्थ हो जाता है कि यदि दूसरों में कोई दोष है, तो मुझमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। और भले ही मुझमें दूसरा दोष न भी हो, फिर भी दूसरों का दोष देखना भी तो एक दोष ही है। दूसरों का दोष देखना और अपने में अच्छाई का अभिमान करना, ये दोनों दोष साथ में ही चलते हैं। इसलिए, हमें इन दोनों ही दोषों से मुक्त होने का हमेशा प्रयत्न करना चाहिए।

आत्ममंथन और आत्मसुधार की दिशा में निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए

दूसरों के दोष देखने की प्रवृत्ति से बचना और अपने अंदर के दोषों को पहचानना और उन्हें दूर करना ही सच्चे आत्मविकास की दिशा में पहला कदम है। हमें यह समझना चाहिए कि दूसरों के दोष देखने से हमारा मन और अधिक दूषित हो जाता है, जबकि अपने दोषों को सुधारने से हम आत्मिक शुद्धि की ओर अग्रसर होते हैं। इसलिए, आत्ममंथन और आत्मसुधार की दिशा में निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए, ताकि हम अपने जीवन को अधिक सार्थक और शुद्ध बना सकें।

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डिस्क्लेमर: इस लेख में कोई जानकारी नही दी गई है बल्कि धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक ग्रंथों, व्यक्तिगत चिंतन और मनन के द्वारा एक सोच है प्रस्तुत की गई है। प्रत्येक व्यक्ति की सोच इस संबंध मे अलग हो सकती है adhyatmikaura.in प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज की सोच का सम्मान करता हैं। व्यक्ति को इस लेख से जुड़ी जानकारी अपने जीवन मे उतारने से पहले अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए।

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