शरीर नाशवान हैं लेकिन हम सभी (आत्मसवरूप) अविनाशी हैं।

शरीर नाशवान हैं लेकिन हम सभी (आत्मसवरूप) अविनाशी हैं।

मैं, आप और यह सभी लोग पहले नहीं थे, यह बात बिलकुल सही नहीं है, और आगे भी नहीं रहेंगे, ऐसा कहना भी गलत है। इसका तात्पर्य यह है कि जब ये सभी शरीर (मेरे, आपके और अन्य सभी के) नहीं थे, तब भी हम सब थे और जब ये शरीर नहीं रहेंगे, तब भी हम सब रहेंगे। अर्थात यह सभी शरीर नाशवान हैं, लेकिन हम सभी (आत्मस्वरूप) अविनाशी हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जो आदि और अंत में रहता है, वह मध्य में भी रहता है, और जो आदि और अंत में नहीं रहता, वह मध्य में भी नहीं रहता।

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कई लोग सोचेंगे कि जो आदि और अंत में नहीं रहता, वह मध्य में भला कैसे नहीं रहता, क्योंकि जो मध्य में रहता है, वह तो हमें दिखाई देता है। इसका उत्तर यह है कि जिस दृष्टि से अर्थात (मन, बुद्धि और इंद्रियों) से जिस दृश्य का अनुभव हो रहा है, उन मन, बुद्धि, इंद्रियों सहित वह दृश्य प्रतिक्षण बदल रहा है। वह एक क्षण भी स्थाई नहीं है। जब मनुष्य स्वयं का दृश्य के साथ मेल कर लेता है, तब वह दृष्टा अर्थात देखने वाला बन जाता है।

जैसे भूत और भविष्य से हमारा संबंध नहीं है, वैसे ही वर्तमान से भी हमारा संबंध नहीं है

शरीर नाशवान हैं देखने के साधन मन, बुद्धि, इंद्रियाँ और दृश्य अर्थात मन, बुद्धि, इंद्रियों के विषय यह सभी एक क्षण भी स्थिर नहीं हैं, तो देखने वाला स्थाई कैसे होगा। तात्पर्य यह है कि देखने वाले की संज्ञा तो दृश्य और दर्शन के संबंध से ही है। दृश्य और दर्शन का संबंध ना हो तो देखने वाले की कोई संज्ञा ही नहीं होती। भूतकाल और भविष्य काल की घटना जितनी दूर दिखती है, उतनी ही दूर वर्तमान भी है। जैसे भूत और भविष्य से हमारा संबंध नहीं है, वैसे ही वर्तमान से भी हमारा संबंध नहीं है। जब संबंध ही नहीं है, तो फिर भूत, भविष्य और वर्तमान में क्या फर्क हुआ। ये तीनों काल के अंतर्गत हैं, जबकि हमारा स्वरूप काल से भी पुराना है। काल का तो खंड होता है, पर हमारी स्वरूप सत्ता अखंड है।

शरीर (शरीर के मिटने का शोक व्यर्थ है) को अपना स्वरूप मानने से ही भूत, भविष्य और वर्तमान में फर्क दिखता है, लेकिन वास्तव में भूत, भविष्य और वर्तमान विद्यमान ही नहीं हैं। अनेक युग बदल जाएं तो भी शारीरि (आत्मा) कभी बदलता नहीं है। वह ज्यों का त्यों ही रहता है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है, परंतु शरीर निरंतर बदलता ही रहता है, क्षण मात्र भी वह स्थिर नहीं रहता क्योंकि वह जड़ प्रकृति का अंश है।

डिस्क्लेमर: इस लेख में कोई जानकारी नही दी गई है बल्कि धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक ग्रंथों, व्यक्तिगत चिंतन और मनन के द्वारा एक सोच है प्रस्तुत की गई है। प्रत्येक व्यक्ति की सोच इस संबंध मे अलग हो सकती है adhyatmikaura.in प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज की सोच का सम्मान करता हैं। व्यक्ति को इस लेख से जुड़ी जानकारी अपने जीवन मे उतारने से पहले अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए।

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