मनुष्य के शरीर में सबसे पहले बाल्यावस्था आती है, जिसमें एक बालक अपने जीवन की शुरुआत करता है, फिर धीरे-धीरे यह बाल्यावस्था युवा अवस्था में परिवर्तित हो जाती है, जिसमें मनुष्य अपनी जवानी के रंगीन और जोशीले दिनों का अनुभव करता है, और अंत में, जीवन की इस यात्रा में वृद्धावस्था आती है, जिसमें शरीर की शक्ति और स्फूर्ति कम होने लगती है और मनुष्य अनुभव और ज्ञान के साथ परिपक्व होता जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य के शरीर में कभी भी एक अवस्था स्थिर नहीं रहती, बल्कि उसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है, यह परिवर्तन एक अनवरत प्रक्रिया है। जैसे स्थूल शरीर बालक से जवान और जवान से बूढ़ा हो जाता है, और हमें इन अवस्थाओं के परिवर्तन पर कोई शोक नहीं होता क्योंकि यह जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसी प्रकार आत्मा भी एक शरीर से दूसरे शरीर में जाती है, तो इस विषय में भी हमें शोक (शरीर के मिटने का शोक व्यर्थ है) नहीं करना चाहिए। जैसे बाल्यावस्था, जवानी, और वृद्धावस्था स्थूल शरीर की अवस्थाएँ हैं, वैसे ही मृत्यु के बाद दूसरा शरीर धारण करना आत्मा की सूक्ष्म और कारण शरीर की अवस्था है। वास्तव में ऐसा कोई क्षण नहीं होता जिसमें स्थूल शरीर का परिवर्तन न हो। इसी प्रकार, सूक्ष्म और कारण शरीर में भी प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, यह परिवर्तन हमारे जीवन के हर पल में महसूस किया जा सकता है।
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स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में परिवर्तन सिद्ध होना
स्थूल शरीर की अवस्था ‘जागृत’, सूक्ष्म शरीर की अवस्था ‘स्वप्न’, और कारण शरीर की अवस्था ‘नींद’ मानी जाती है। मनुष्य अपने को स्वप्न में बाल्यावस्था में बालक देखता है, युवावस्था में युवा और वृद्धावस्था में वृद्ध देखता है, यह सिद्ध करता है कि स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर में भी परिवर्तन होता है। इसी प्रकार, नींद बाल्यावस्था में गहरी होती है, जवानी में थोड़ी कम हो जाती है, और बुढ़ापे में नींद बहुत कम हो जाती है। अतः इससे भी यह सिद्ध होता है कि कारण शरीर भी परिवर्तनशील है। हर अवस्था, हर क्षण, जीवन के हर पहलू में यह परिवर्तन देखने को मिलता है और यह समझना आवश्यक है कि यह परिवर्तन ही जीवन की सच्चाई है।
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तत्वज्ञ पुरुष हमेशा समान रहता है वह कभी किसी अवस्था मे मोहित नहीं होता
जिसे देवता, पशु, पक्षी आदि का शरीर मिलता है, उसे उस शरीर में “मैं यही हूँ” ऐसा अनुभव होता है, तो यह सूक्ष्म शरीर का परिवर्तन हुआ। ऐसे ही कारण शरीर में स्वभाव रहता है, जिसे आम बोलचाल में आदत कहा जाता है। यह आदत देवताओं की अलग होती है, मनुष्यों की अलग, और पशु-पक्षियों की अलग होती है। स्वभाव शरीर के अनुरूप बदल गया तो इसे कारण शरीर का परिवर्तन कहा जाएगा। स्थूल, सूक्ष्म, और कारण शरीर तीनों की अवस्थाएँ निरंतर बदल रही हैं, लेकिन आत्मा का कभी परिवर्तन नहीं होता है। अगर आत्मा का परिवर्तन होता, तो इन तीनों अवस्थाओं के बदलने पर भी “मैं वही हूँ” ऐसा ज्ञान मनुष्य के अंतर्मन में जागृत नहीं होता। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा, अर्थात स्वयं में, कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है। इस प्रकार, शरीर और आत्मा को अलग-अलग मानने वाला तत्वज्ञ पुरुष हमेशा समान रहता है, वह कभी किसी अवस्था में मोहित नहीं होता है।
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मृत्यु से भय कैसा?
शरीर जन्म से पहले नहीं था, मरने के बाद भी नहीं रहेगा, तथा वर्तमान में भी यह प्रतिक्षण मर रहा है या कह सकते हैं इसका परिवर्तन हो रहा है। वास्तव में मृत्यु क्या है? बदलाव, परिवर्तन ही तो मृत्यु है। लेकिन आमतौर पर हम लोग मृत्यु शब्द से परहेज करते हैं, डरते हैं, मौत का जिक्र तक होने पर। लेकिन सही मायने में मृत्यु और कुछ नहीं, एक नई शुरुआत है, बदलाव ही तो है मृत्यु। तो मृत्यु से फिर भय कैसा? यह आपके विचार योग्य बात है। खैर, अब आगे चलते हैं। वास्तव में गर्भ में आते ही शरीर के मरने का क्रम (परिवर्तन) शुरू हो जाता है। बाल्यावस्था मर जाए तो युवावस्था आती है, युवावस्था मर जाए तो वृद्धावस्था, और वृद्धावस्था मर जाए तो देहांतर अवस्था, अर्थात दूसरे शरीर की प्राप्ति का क्रम।
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हमारी मुक्ति स्वतः सिद्ध है
भिन्न-भिन्न योनियों में जाकर शरीर बदलता रहता है, लेकिन आत्मा इतने परिवर्तन के बाद भी एक रहती है। तभी तो आत्मा इतने योनियों में, इतने लोकों में जाती है। जन्मना और मरना आत्मा का काम नहीं, वह तो शरीर का काम है। आत्मा की आयु तो अनादि अनंत है, जिसके अंतर्गत अनेकों शरीर उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। जैसे हम वस्त्र बदलते हैं, पर फिर भी वस्त्र बदलने पर भी हम नहीं बदलते, वैसे ही अनेक योनियों में जाने पर भी हमारी सत्ता नित्य निरंतर ज्यों की त्यों बनी रहती है। हमें समझना चाहिए कि हमारा जीवन किसी एक शरीर के अधीन नहीं है, लेकिन शरीर के साथ अपना संबंध मान लेने के कारण ही हम अनेक शरीरों को धारण करते रहते हैं। अगर हम नया संबंध न मानें तो हमारी मुक्ति स्वतः सिद्ध हो जाएगी क्योंकि हम वास्तव में संबंध रहित ही तो हैं।
डिस्क्लेमर: इस लेख में कोई जानकारी नही दी गई है बल्कि धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक ग्रंथों, व्यक्तिगत चिंतन और मनन के द्वारा एक सोच है प्रस्तुत की गई है। प्रत्येक व्यक्ति की सोच इस संबंध मे अलग हो सकती है adhyatmikaura.in प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज की सोच का सम्मान करता हैं। व्यक्ति को इस लेख से जुड़ी जानकारी अपने जीवन मे उतारने से पहले अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए।
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