शरीर के मिटने का शोक व्यर्थ है
एक विभाग शरीर (जड़ प्रकृति) का है और एक विभाग शरीरि (आत्मा) का है। दोनों एक-दूसरे से सर्वथा संबंध रहित हैं। दोनों का स्वभाव अलग-अलग है। एक जड़ है और एक चेतन; एक नाशवान है और एक अविनाशी; एक विकारी है और एक निर्विकार। एक में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है और एक अनंत काल तक ज्यों का त्यों रहता है। शरीर का निरंतर विनाश होता रहता है, इसीलिए उसके लिए शोक करना व्यर्थ है, (इच्छित वस्तुओं का संयोग सुख और वियोग ही दुःख देता है) और शरीरि (आत्मा) का विनाश कभी होता ही नहीं, अतः शरीर के मिटने का शोक व्यर्थ है। शोक केवल मूर्खता के कारण होता है। शरीर और शरीरि (आत्मा) को जानने वाले विवेकशील मनुष्य मृत अथवा जीवित किसी भी प्राणी के लिए कभी शोक नहीं करते। उनकी दृष्टि में बदलने वाले शरीर का विभाग अलग है और न बदलने वाले अर्थात शरीरि (आत्मा) का विभाग अलग है।
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शरीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता और परमात्मा निरंतर हमारे साथ रहते हैं
मनुष्य यदि अपना कल्याण चाहता है तो उसके लिए सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि “मैं कौन हूं?” देह और देहि का भेद स्वीकार करने से ही कल्याण हो सकता है। जब तक “मैं देह हूँ” यह भाव रहेगा, तब तक कितना ही उपदेश सुनते रहो और साधन भी करते रहो, कल्याण नहीं होगा। जो वस्तु अपनी ना हो, उसको अपना मान लेना और जो वस्तु अपनी ही हो, उसको अपना न मानना बहुत बड़ी भूल है। अपनी वस्तु वही हो सकती है जो सदा हमारे साथ रहे और सदा हम उसके साथ रहें। शरीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता और परमात्मा निरंतर हमारे साथ रहते हैं। कारण यह है कि शरीर का सम्बन्ध संसार के साथ है और हमारी अर्थात शरीरि (आत्मा) का सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। इसलिए संसार से मोह करना और इस नश्वर शरीर को अपना मानना और शरीरि (आत्मा) को न पहचानना तथा परमात्मा को अपना न मानना सबसे बड़ी भूल है।
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जिसकी मृत्यु होती है, वह तुम नहीं हो
भगवद गीता में इसी बात को श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जिसकी मृत्यु होती है, वह तुम नहीं हो अर्थात तुम शरीर नहीं हो, तुम ज्ञाता (जानने वाले) हो, तुम सर्वदेशीय हो, शरीर एक देशीय (सांसारिक) है। तुम चिन्मय लोक के निवासी हो, शरीर जड़ (संसार) का निवासी है। तुम परमात्मा के अंश हो, शरीर प्रकृति का अंश है। तुम निरंतर अमृत में रहते हो, शरीर (शरीर नाशवान हैं लेकिन हम सभी (आत्मस्वरूप) अविनाशी हैं) निरंतर मृत्यु में रहता है। शरीर की सत्ता से तुम्हारी किंचित मात्र भी क्षति नहीं होती। इसीलिए शरीर को लेकर तुम्हें शोक, चिंता, भय आदि नहीं होने चाहिए।
जिस समय हम शरीर और शरीरि (आत्मा) का विचार करते हैं, उस समय भी शरीर और शरीरि (आत्मा) वैसे ही हैं और जिस समय हम कोई विचार नहीं करते, उस समय भी वे दोनों वैसे ही हैं। अर्थात विचार करने या न करने से वस्तु स्थिति में तो कोई फर्क नहीं पड़ता है, परंतु मनुष्य का मोह मिट जाता है और उसका मनुष्य जन्म सफल हो जाता है। मनुष्य शरीर विवेक प्रधान है। “मैं शरीर नहीं हूं” यह विवेक मनुष्य शरीर में ही हो सकता है। शरीर को “मैं” और “मेरा” मानना मनुष्यबुद्धि नहीं है बल्कि पशुबुद्धि है।
डिस्क्लेमर: इस लेख में कोई जानकारी नही दी गई है बल्कि धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक ग्रंथों, व्यक्तिगत चिंतन और मनन के द्वारा एक सोच है प्रस्तुत की गई है। प्रत्येक व्यक्ति की सोच इस संबंध मे अलग हो सकती है adhyatmikaura.in प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज की सोच का सम्मान करता हैं। व्यक्ति को इस लेख से जुड़ी जानकारी अपने जीवन मे उतारने से पहले अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए।
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