निर्जला एकादशी: कथा और पूजा विधि

निर्जला एकादशी: कथा और पूजा विधि

निर्जला एकादशी, जिसे जेठ सुदी एकादशी (ग्यारस) के नाम से भी जाना जाता है, का विशेष महत्व है। इस दिन उपवास करना, विशेष रूप से जल का भी सेवन नहीं करना, भक्तों के लिए एक चुनौतीपूर्ण परंपरा है। यह व्रत विशेष रूप से उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो अपने धार्मिक कर्तव्यों के प्रति सजग रहते हैं।

व्रत की विधि

निर्जला एकादशी के दिन सभी भक्तों को व्रत रखना चाहिए। जल भी नहीं पीना चाहिए। यदि किसी कारणवश भूखा रहना कठिन हो, तो फलाहार लेकर व्रत किया जा सकता है।

इस दिन, श्रद्धालु सभी मटकों में जल भरकर उन्हें ढक्कन से ढक देते हैं। ढक्कन में चीनी, दक्षिणा, और फल इत्यादि रखकर पूजा की जाती है। जब ब्राह्मण को मटका दिया जाता है, तब एक-एक सीधा और शरबत भी उन्हें दिया जाना चाहिए। इस दिन महिलाएँ अपने हाथों में मेंहदी लगाकर, नथ पहनकर और ओढ़नी ओढ़कर बायना निकालती हैं।

एक मिट्टी के मटके में जल भरकर ढक्कन में चीनी, रुपया रखकर और बायने के साथ आम रखकर, करवे पर रोली से सतिया बनाकर ढक्कन को ढक दें। फिर हाथ फेरकर सासूजी के पैर छूकर भेंट दें।

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निर्जला एकादशी का महत्व

निर्जला एकादशी का व्रत केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह आत्म-शुद्धि और तात्त्विक संतोष का साधन है। यह व्रत साधक को संयम और आत्म-नियंत्रण का अभ्यास कराता है। बिना जल के उपवास करने से व्यक्ति की इच्छाशक्ति और अनुशासन में वृद्धि होती है।

निर्जला एकादशी की कथा

इस व्रत के पीछे की एक रोचक कथा है, जो हमें इसकी महत्ता का अहसास कराती है।

एक बार, भीम ने ऋषि व्यासजी से कहा, “महात्मा! मेरे भाई युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल, और सहदेव सभी एकादशी के दिन उपवास करते हैं और मुझसे भी यह कार्य करने को कहते हैं। लेकिन मैं भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता। मुझे बताएं, क्या मैं बिना व्रत किए ही एकादशी का फल प्राप्त कर सकता हूँ?”

इस पर वेदव्यास बोले, “भीमसेन! यदि तुम्हें स्वर्गलोक प्रिय है और नरक से सुरक्षित रहना चाहते हो, तो तुम्हें दोनों एकादशियों का व्रत रखना होगा।” भीमसेन ने उत्तर दिया, “हे देव! एक समय के भोजन से मेरा काम नहीं चलेगा। मेरे उदर में वृक नामक अग्नि निरन्तर प्रज्ज्वलित रहती है। पर्याप्त भोजन करने पर भी मेरी क्षुधा शांत नहीं होती। आप कृपा करके मुझे ऐसा व्रत बताएं कि जिसके करने मात्र से मेरा कल्याण हो सके।”

व्यासजी ने कहा, “हे भद्र! ज्येष्ठ की एकादशी को निर्जल व्रत करो। स्नान और आचमन में जल ग्रहण कर सकते हो, लेकिन अन्न बिल्कुल न ग्रहण करो। अन्नाहार लेने से व्रत खंडित हो जाता है। तुम जीवनपर्यन्त इस व्रत का पालन करो। इससे तुम्हारे पूर्वकृत एकादशियों के अन्न खाने का पाप समूल विनष्ट हो जाएगा। इस दिन ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का उच्चारण करना चाहिए और गौ दान करनी चाहिए।”

व्यासजी के ज्ञान के अनुसार, भीमसेन ने निर्जला व्रत का साहसपूर्वक पालन किया। इसके परिणामस्वरूप वह प्रातः होते-होते संज्ञाहीन हो गए। इस स्थिति में, पांडवों ने गंगाजल, तुलसी, चरणामृत, और प्रसाद देकर उनकी मूर्च्छा दूर की। इस घटना से भीमसेन पापमुक्त हो गए।

निष्कर्ष

निर्जला एकादशी केवल एक उपवास नहीं है; यह एक गहरी आत्म-प्रवृत्ति और ईश्वर के प्रति भक्ति का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि कैसे संयम और तपस्या से हम अपने भीतर के संघर्षों को पार कर सकते हैं। एकादशी के दिन व्रत रखने से केवल शारीरिक लाभ ही नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होता है।

इस तरह, निर्जला एकादशी न केवल एक धार्मिक पर्व है, बल्कि यह हमें आत्म-निर्भरता, भक्ति और ईश्वर के प्रति समर्पण का पाठ भी पढ़ाती है। यह एक अवसर है जब हम अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने मन, शरीर और आत्मा को शुद्ध करते हैं।

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