आशा भोगती व्रत: देवी पार्वती को प्रसन्न करने का दिन

आशा भोगती व्रत: देवी पार्वती को प्रसन्न करने का दिन

आशा भोगती का व्रत अत्यंत शक्तिशाली और फलदायी माना जाता है, खासकर उन स्त्रियों के लिए जो सुहाग, संतान, और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। इस व्रत की महिमा हिमाचल प्रदेश की पारंपरिक कथाओं और लोक मान्यताओं में गहराई से जुड़ी है। आशा भोगती का व्रत श्राद्ध पक्ष की अष्टमी से शुरू होता है और लगातार आठ दिनों तक इसका पालन किया जाता है। प्रत्येक दिन, इस व्रत के दौरान देवी आशा भोगती की पूजा विशेष विधियों और सामग्री से की जाती है, जो न केवल व्रती को पारिवारिक समृद्धि प्रदान करती है, बल्कि उनके सुहाग और संतति की रक्षा भी करती है।

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आशा भोगती का व्रत शुरू करने के लिए सबसे पहले घर की रसोई के आठ कोनों को गोबर से लीपा जाता है। यह शुद्धिकरण का प्रतीक है और रसोई को पवित्र रखने के लिए यह आवश्यक होता है। आठों कोनों पर अलग-अलग पूजा सामग्री चढ़ाई जाती है। इन सामग्री में शामिल होते हैं – दूध, 8 पैसे (रुपये), 8 रोली के छींटे, 8 मेहंदी के छींटे, और 8 काजल की टिक्की। इन चीजों के साथ एक-एक सुहाली (विशेष प्रकार का मीठा पकवान) भी चढ़ाई जाती है। इसके बाद, एक दीपक जलाया जाता है और एक-एक फल अर्पित किया जाता है। अंतिम दिन, व्रत का उद्यापन करने के लिए एक सुहाग पिटारी (सुहाग की वस्तुओं से भरी एक टोकरी) चढ़ाई जाती है।

आठ दिनों तक इस व्रत का पालन उसी प्रकार किया जाता है और नौवें दिन व्रत का विधिवत उद्यापन किया जाता है। इस उद्यापन के दौरान व्रती आठ सुहाग पिटारियों में सुहाग की सभी चीजें, जैसे चूड़ा, नाल, डाली, मेहंदी, सिन्दूर, काजल, टीकी, शीशा आदि रखकर सुहागन औरतों को अर्पित करती है। साथ ही पैर छूकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। यह व्रत कुल आठ वर्षों तक किया जाता है और नौवें वर्ष इसका उद्यापन संपन्न होता है।

बहुत समय पहले हिमाचल प्रदेश में एक राजा राज्य करता था, जिसके दो सुंदर कन्याएँ थीं। बड़ी का नाम गौरा था और छोटी का नाम पार्वती। दोनों कन्याएँ अत्यंत सुशील और धर्मपरायण थीं। एक दिन राजा ने अपनी दोनों बेटियों को बुलाया और उनसे एक विचित्र सवाल किया, “तुम दोनों किसके भाग का खाती हो?”

गौरा ने तुरंत उत्तर दिया, “मैं तो पिता जी, आपके भाग का खाती हूँ।”

लेकिन पार्वती बोली, “मैं तो अपने भाग्य का खाती हूँ।”

राजा को पार्वती का उत्तर सुनकर अचरज हुआ। उन्होंने सोचा कि पार्वती तो अपने ही भाग्य पर भरोसा करती है, जबकि गौरा मेरे भाग्य का सहारा लेती है। राजा ने यह सोचकर अपनी दोनों बेटियों के लिए अलग-अलग वर ढूंढने का निश्चय किया। उन्होंने अपने दरबार के ब्राह्मणों को बुलाकर आदेश दिया कि गौरा के लिए एक सुंदर और शक्तिशाली राजा का वर ढूंढा जाए और पार्वती के लिए एक भिखारी।

ब्राह्मणों ने राजा के आदेश का पालन करते हुए गौरा की शादी एक सुन्दर राजकुमार से तय कर दी और पार्वती के लिए भगवान शिव, जो एक बूढ़े भिखारी का भेष बनाकर आए थे, को वर के रूप में चुना। राजा ने गौरा की शादी बड़े धूमधाम से की, लेकिन पार्वती की शादी के लिए उन्होंने किसी भी प्रकार की विशेष तैयारी नहीं की। पार्वती का विवाह साधारण तरीके से संपन्न हुआ, और भगवान शिव उन्हें अपने साथ कैलाश पर्वत ले गए।

शिव-पार्वती की अद्भुत यात्रा

जब पार्वती अपने ससुराल जा रही थीं, तो जहाँ भी उनके चरण पड़ते, वहाँ की दूब (घास) जल जाती। भगवान शिव ने पंडितों को बुलाया और इसका कारण पूछा। पंडितों ने कहा, “पार्वती की सभी भाभियों ने इस आशा भोगती व्रत को किया है और उन्होंने अपने माइके में जाकर इसका उद्यापन भी कर दिया है। जब तक पार्वतीजी भी अपने माइके जाकर उद्यापन नहीं करेंगी, यह दोष दूर नहीं होगा।”

भगवान शिव पार्वतीजी से बोले, “तुम्हें अपने माइके जाकर आशा भोगती व्रत का उद्यापन करना होगा। तभी यह दोष समाप्त होगा।”

पार्वतीजी ने भगवान शिव की बात मानी और अपने पीहर जाने की तैयारी की। जब वे अपने पीहर पहुँचीं, तो उन्हें पहचानने में किसी को देर नहीं लगी। सभी बहुत प्रसन्न हुए और राजा ने पार्वतीजी से पूछा, “अब तुम किसके भाग का खाती हो?”

पार्वतीजी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “मैं अपने ही भाग का खाती हूँ। इसलिए मैं आज इतनी खुश और सुखी हूँ।”

उद्यापन की तैयारी

पार्वतीजी की भाभियाँ आशा भोगती व्रत का उद्यापन कर रही थीं। उन्होंने पार्वतीजी से कहा, “तुम्हारे पास किसी चीज़ की कमी नहीं है। शिवजी तो सबकुछ तैयार कर देंगे, तुम उद्यापन क्यों नहीं करती?” पार्वतीजी ने भी सोचा कि अब उद्यापन का समय आ गया है, और उन्होंने भी इसका उद्यापन करने का निश्चय किया।

पार्वतीजी की दासी ने भगवान शिव से उद्यापन की तैयारी के लिए कहा। भगवान शिव ने अपनी अंगूठी दी और कहा, “इस अंगूठी से तुम जो भी मांगोगी, वह मिल जाएगा।”

पार्वतीजी ने उस अंगूठी का उपयोग करते हुए आठ सुहाग पिटारियाँ तैयार कीं, जिनमें सुहाग की सभी चीजें – चूड़ा, नाल, गहने, मेहंदी, सिन्दूर, काजल आदि थीं। उन्होंने विशेष रूप से अपनी सासू माँ के लिए एक अलग पिटारी तैयार की। जब भाभियों ने देखा कि पार्वती ने इतनी जल्दी सारी तैयारी कर ली है, तो वे आश्चर्यचकित रह गईं और बोली, “हम सभी लोग आठ महीनों से लगातार  पूरी लगन के साथ इसकी व्ययस्था में लगे हुए हैं, फिर भी हमसे यह सब इतनी जल्दी नहीं हो सका।”

शिवजी और पार्वतीजी ने विधिवत रूप से आशा भोगती व्रत का उद्यापन किया। इसके बाद, भगवान शिव ने पार्वतीजी से कहा, “अब चलो, अपने घर लौटते हैं।”

शिवजी और पार्वती की यात्रा का रहस्य

वापस जाते समय रास्ते में एक राजा की रानी से मिले, जो कुआं पूजने जा रही थी। राजा और रानी का बच्चा हाल ही में पैदा हुआ था, और वे खुशियाँ मना रहे थे। पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा, “यह सब क्या हो रहा है?” शिवजी ने बताया, “यह वही रानी है जिसे पहले बहुत कष्ट था। अब उसके बच्चे का जन्म हुआ है और वे पूजा करने जा रही हैं।”

रास्ते में पार्वतीजी की कोख की जिद को याद करते हुए शिवजी ने कहा, “मैंने पहले ही कहा था कि कोख मत बँधवाओ, लेकिन तुमने जिद पकड़ ली थी।” पार्वतीजी ने तब गणेशजी को जन्म दिया, और उनके साथ सभी ने खूब उत्सव मनाया। पार्वतीजी ने कुआं पूजा और फिर सुहाग बाँटने का संकल्प लिया।

सारा नगर यह सुनकर दौड़ पड़ा कि पार्वतीजी सुहाग बाँट रही हैं। साधारण स्त्रियाँ सुहाग लेने के लिए दौड़ पड़ीं, परंतु ब्राह्मणी और वैश्य स्त्रियाँ देर से पहुँचीं। पार्वतीजी ने अपनी उँगलियों से मेहंदी, सिन्दूर और काजल निकालकर उन्हें सुहाग का वरदान दिया।

आशा भोगती का व्रत करने वाली स्त्रियाँ अपने जीवन में सुख, समृद्धि, और सुहाग का आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। यह व्रत करने से न केवल स्त्री का जीवन सुखमय होता है, बल्कि उसके परिवार की समृद्धि भी सुनिश्चित होती है। व्रत के माध्यम से स्त्रियाँ देवी पार्वती की कृपा प्राप्त करती हैं और जीवन भर अपने सुहाग की रक्षा करती हैं।

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