12 महीनों की गणेश चौथ की कथाएँ

12 महीनों की गणेश चौथ की कथाएँ

गणेश पूजा का भारतीय जनमानस में अत्यधिक महत्व है। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान या पूजा की शुरुआत, सर्वप्रथम विघ्नहर्ता भगवान गणेश की आराधना से होती है। मान्यता है कि बिना गणेशजी की पूजा के, कोई भी कार्य सफलतापूर्वक संपन्न नहीं होता। धार्मिक रूप से श्रद्धालु प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि पर व्रत रखते हैं। इस व्रत के नियमों के अनुसार, व्रत रखने वाले को उस दिन की गणेश चतुर्थी की कथा का श्रवण या पाठ करना अनिवार्य होता है।

इसलिए यहाँ, बारहों महीनों की गणेश चतुर्थी व्रत कथाएँ संक्षेप में प्रस्तुत की जा रही हैं, जिससे व्रत करने वाले साधक को आसानी से इन कथाओं का लाभ मिल सकें और उनकी पूजा सफल हो सकें।

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चैत्र मास (अप्रैल) की गणेश चौथ की कथा

यह कथा सतयुग के समय की है, जब एक राजा मकरध्वज नाम से प्रसिद्ध था। मकरध्वज न केवल धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था, बल्कि अपनी प्रजा का अपनी संतान की तरह पालन-पोषण करता था। उसकी प्रजा सुखी और खुशहाल थी। राजा मकरध्वज पर मुनि याज्ञवल्क्य का विशेष आशीर्वाद था, जिनके आशीर्वाद से राजा को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी।

यद्यपि मकरध्वज राज्य का स्वामी था, लेकिन राजकाज का संचालन उसका विश्वासपात्र मंत्री धर्मपाल किया करता था। धर्मपाल के पाँच पुत्र थे, जिनका विवाह हो चुका था। इनमें सबसे छोटे बेटे की पत्नी गणेशजी की परम भक्त थी और वह नियमित रूप से उनकी पूजा किया करती थी। वह हर महीने गणेश चौथ का व्रत भी विधिपूर्वक करती थी।

लेकिन सास को बहू की यह भक्ति रास नहीं आती थी। उसे शंका रहती थी कि बहू गणेशजी की पूजा के नाम पर जादू-टोना करती है। सास ने कई बार बहू को गणेश पूजा से रोकने का प्रयास किया, लेकिन बहू की गणेशजी के प्रति आस्था अडिग थी। वह पूरे विश्वास के साथ पूजा करती रही।

गणेशजी को यह ज्ञात था कि बहू के पूजा करने से सास नाखुश रहती है, इसलिए सास को सबक सिखाने के लिए उन्होंने राजा के बेटे को गायब कर दिया। पूरे राज्य में हाहाकार मच गया और सास पर संदेह किया जाने लगा। सास की परेशानी बढ़ने लगी। तभी छोटी बहू ने सास के चरण पकड़कर कहा, “माँजी, आप भी गणेशजी की पूजा कीजिए। वे विघ्नहर्ता हैं और आपका दुःख अवश्य दूर करेंगे।”

बहू की बात मानकर सास ने भी गणेशजी की पूजा शुरू की। गणपति प्रसन्न हुए और राजा के पुत्र को सकुशल लौटा दिया। इसके बाद सास की बहू पर शंका समाप्त हो गई और वह प्रसन्न होकर न केवल बहू को सम्मान देने लगी, बल्कि स्वयं भी गणेशजी की पूजा नियमित रूप से करने लगी।

इस प्रकार, गणेशजी की भक्ति से सभी संकटों का समाधान हो गया और सास-बहू के संबंधों में प्रेम और सम्मान की भावना आ गई।

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वैशाख मास (मई) की गणेश चौथ की कथा

प्राचीन काल की बात है, रंतिदेव नामक एक राजा का राज्य था। उसी राज्य में धर्मकेतु नामक एक धर्मपरायण ब्राह्मण निवास करता था। धर्मकेतु की दो पत्नियाँ थीं—एक का नाम सुशीला और दूसरी का चंचलता। दोनों पत्नियों के स्वभाव और जीवनशैली में ज़मीन-आसमान का अंतर था।

सुशीला धार्मिक स्वभाव की महिला थी, जो व्रत-उपवास, पूजा-पाठ और आराधना में लीन रहती थी। उसका जीवन सादगी और धर्म के प्रति समर्पित था। दूसरी ओर, चंचलता भोग-विलास में डूबी रहती थी। उसे केवल अपने शरीर के श्रृंगार और भौतिक सुखों में रुचि थी, और व्रत-उपवास या पूजा-पाठ से उसका कोई सरोकार नहीं था।

समय बीता, और दोनों पत्नियों को संतान की प्राप्ति हुई। सुशीला ने एक पुत्री को जन्म दिया, जबकि चंचलता ने एक पुत्र को। चंचलता अक्सर सुशीला का मज़ाक उड़ाती और कहती, “सुशीला! तूने इतने व्रत-उपवास करके अपने शरीर को सुखा लिया, फिर भी तुझे बेटी हुई, और मैंने कोई पूजा-अर्चना नहीं की, फिर भी मुझे पुत्र का सुख मिला।”

शुरू में सुशीला ने ये बातें सहन कर लीं, लेकिन जब यह ताने-तिश्नें बढ़ गईं, तो उसका हृदय बहुत दुखी हो गया। उसने पूरी श्रद्धा से गणेशजी की आराधना की। गणेशजी उसकी सच्ची भक्ति से प्रसन्न हुए और अपनी कृपा बरसाई। उनकी कृपा से सुशीला की पुत्री के मुँह से बहुमूल्य मोती और मूँगे निकलने लगे, जिससे सुशीला के भाग्य में वृद्धि हुई। साथ ही, कुछ समय बाद गणेशजी के आशीर्वाद से सुशीला ने एक रूपवान पुत्र को भी जन्म दिया।

सुशीला की बढ़ती समृद्धि और सौभाग्य को देखकर चंचलता के मन में जलन होने लगी। ईर्ष्या से अंधी होकर उसने एक दिन सुशीला की मासूम बेटी को कुएँ में धकेल दिया। लेकिन सुशीला पर तो गणेशजी की विशेष कृपा थी। उसकी बेटी सकुशल कुएँ से बाहर निकाल ली गई और उसे कोई आंच नहीं आई।

इस घटना के बाद चंचलता को अपनी भूल का अहसास हुआ, और वह सुशीला से क्षमा माँगने लगी। गणेशजी की कृपा और सुशीला की सच्ची भक्ति ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि धर्म और भक्ति की राह पर चलने वाले का कल्याण अवश्य होता है।

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ज्येष्ठ मास (जून) की गणेश चौथ की कथा

यह कथा उस समय की है जब प्राचीन काल में राजा पृथु पृथ्वी पर राज्य कर रहे थे। उनके राज्य में जयदेव नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसके चार पुत्र थे, और सभी का विवाह हो चुका था। जयदेव की सबसे बड़ी पुत्रवधू गणेश चौथ का व्रत करना चाहती थी, परंतु जब उसने अपनी सास से इसके लिए अनुमति मांगी, तो सास ने उसे मना कर दिया। कई बार बहू ने अपनी इच्छा प्रकट की, लेकिन हर बार उसे सास का इंकार ही मिला। इससे बहू का मन भारी हो गया, और वह भीतर ही भीतर गणेशजी से अपनी पीड़ा व्यक्त करने लगी।

इसी दौरान, बड़ी बहू का एक युवा पुत्र था, जिसका विवाह होना बाकी था। गणेशजी उसकी सच्ची भक्ति और व्यथा देखकर उससे नाराज हो गए और उसके बेटे को गायब कर दिया। घर में अचानक उदासी छा गई। बड़ी बहू चिंतित होकर अपनी सास के पास पहुंची और प्रार्थना की, “माँजी, अगर आप मुझे गणेश चौथ का व्रत करने की अनुमति दें, तो शायद गणेशजी हम पर कृपा करें और मेरा बेटा लौट आए।”

बुजुर्गों का स्नेह अपने पोते-पोती पर सदैव बना रहता है, इसलिए सास ने भावुक होकर बहू को व्रत करने की अनुमति दे दी। बहू ने पूरे मन और श्रद्धा से गणेशजी का व्रत किया। गणेशजी उसकी भक्ति से प्रसन्न हो गए और ब्राह्मण का वेष धारण कर जयदेव के घर पहुँचे। सास और बड़ी बहू ने बड़ी श्रद्धा और प्रेम से उनका स्वागत किया और भोजन कराया।

गणेशजी तो उन पर कृपा बरसाने ही आए थे। उनके आशीर्वाद से बड़ी बहू का पुत्र सकुशल घर लौट आया। इस घटना के बाद, पूरे परिवार में गणेशजी के प्रति गहरी श्रद्धा और विश्वास जाग उठा, और सास भी समझ गई कि सच्ची भक्ति का फल अवश्य मिलता है।

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आषाढ़ मास (जुलाई) की गणेश चौथ की कथा

बहुत समय पहले की बात है, महिष्मती नामक एक सुंदर नगरी थी, जहाँ एक धर्मपरायण राजा महाजित का शासन था। महाजित राजा हर तरह से समृद्ध था, पर एक कमी उसे निरंतर उदास रखती थी—उसके कोई पुत्र नहीं था। संतान प्राप्ति के लिए उसने कई धार्मिक अनुष्ठान और उपाय किए, परंतु उसकी पूरी आयु व्यतीत हो गई और वह वृद्ध हो गया, लेकिन उसकी मनोकामना अब भी अधूरी थी।

राजा की इस गहरी पीड़ा को देखकर एक दिन लोमश ऋषि ने उसे सांत्वना दी और कहा, “राजन्! यदि तुम अपनी पत्नी के साथ गणेश चौथ का व्रत करो, तो निःसंदेह तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी और तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।”

राजा ने ऋषि की बात मानकर पत्नी सहित पूरी श्रद्धा से गणेश चौथ का व्रत किया। उनकी निष्ठा और भक्ति से प्रसन्न होकर गणेशजी ने उन पर कृपा बरसाई, और कुछ ही समय बाद रानी गर्भवती हो गई। दसवें महीने में, रानी ने एक सुंदर और तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार, गणेशजी ने राजा की वर्षों से अधूरी मनोकामना को पूरा कर दिया, और उनके घर खुशियाँ लौट आईं।

राजा महाजित और रानी ने गणेशजी के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित की, और उनके राज्य में गणेश पूजन की महिमा का गुणगान सदैव किया जाने लगा।

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श्रावण मास (अगस्त) की गणेश चौथ की कथा

जब महादेवजी की पत्नी जगन्माता सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञकुंड में आत्म-त्याग किया, तो अगले जन्म में उन्होंने पर्वतराज हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से पुनः जन्म लिया और पार्वती के नाम से जानी गईं। पार्वती की गहरी आकांक्षा थी कि उन्हें पति रूप में फिर से वही महादेव प्राप्त हों, जो उनके पूर्व जन्म के पति थे। इस इच्छा की पूर्ति के लिए उन्होंने कठोर तपस्या आरंभ की, लेकिन महादेवजी प्रसन्न नहीं हुए, और उनकी तपस्या का कोई फल न मिला।

इतने पर भी पार्वती ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने अनादिकाल से कृपालु माने जाने वाले श्री गणेशजी का ध्यान किया। गणेशजी पार्वती की भक्ति से प्रसन्न होकर उनके पास प्रकट हुए। जब उन्हें पार्वती की इच्छा का ज्ञान हुआ, तो उन्होंने पार्वती को गणेश चौथ का व्रत करने का सुझाव दिया। यह व्रत करने से उनकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी, ऐसा आश्वासन गणेशजी ने दिया।

गणेशजी के इस परामर्श को ध्यान में रखते हुए, पार्वती ने पूर्ण श्रद्धा के साथ गणेश चौथ का व्रत और पूजन किया। गणेशजी की कृपा से उनकी तपस्या सफल हुई, और अंततः महादेवजी ने उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार किया। पार्वती का धैर्य और आस्था उन्हें उनके लक्ष्य तक पहुँचा गई।

इस व्रत की महिमा केवल पार्वती तक ही सीमित नहीं रही। महाभारत काल में धर्मराज युधिष्ठिर ने भी अपने खोए हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए इसी व्रत को किया था। गणेश चौथ का व्रत करने से युधिष्ठिर को भी उनका खोया राज्य वापस मिल गया था।

गणेश चौथ का व्रत निष्ठा और भक्ति से करने पर हर मनोकामना पूर्ण होती है—यह सिद्ध और अति पूजनीय व्रत आज भी लाखों भक्तों के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है।

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भाद्रपद मास (सितंबर) की गणेश चौथ की कथा

प्राचीन काल में एक प्रतापी राजा नल थे, जिनकी पत्नी दमयन्ती अद्वितीय रूपवती और गुणी थी। राजा नल अपनी प्रजा का पालन पूरी निष्ठा और प्रेम से करते थे, जिससे उनके राज्य में सभी सुखी और संतुष्ट थे। उनके शासन में किसी भी प्रकार का दुख-दरिद्रता नहीं थी। 

लेकिन एक दुर्भाग्यपूर्ण शाप के चलते राजा नल पर विपत्तियों की बाढ़ आ गई। उनके जीवन में इतनी मुसीबतें आईं कि उन्हें संभालना मुश्किल हो गया। सबसे पहले उनके हाथीखाने के मदमस्त हाथी चोरों द्वारा चुरा लिए गए, फिर घुड़साल के सारे घोड़े भी चोरी हो गए। इसके बाद डाकुओं ने उनके महल पर हमला कर दिया, सबकुछ लूट लिया और महल में आग लगा दी। जो कुछ भी बचा था, वह भी जुआ खेलने में नष्ट हो गया। 

विपत्ति की यह बाढ़ थमने का नाम नहीं ले रही थी। अंततः राजा नल और रानी दमयन्ती को अपना राज्य छोड़कर जंगलों में भटकना पड़ा। कई दिनों तक वे इधर-उधर घूमते रहे और एक दिन एक तेली के घर पहुँचे। तेली ने उन्हें पहचान नहीं पाई और उन्हें आश्रय दिया। उसने राजा नल को कोल्हू के बैल को हाँकने का काम दिया, जबकि दमयन्ती को सरसों साफ करने का कार्य सौंपा। राजा और रानी, जो कभी राजसी ठाठ-बाट में रहे थे, इन कठिन और थकान भरे कामों को करने में असहाय थे। साथ ही तेली और तेलिन के कड़वे बोलों को भी सहना पड़ रहा था।

राजा नल ने अपनी जान-पहचान के लोगों से मदद मांगने की कोशिश की, लेकिन शाप के प्रभाव के कारण हर जगह उनका अपमान ही हुआ।

एक दिन, जंगल में घूमते हुए राजा नल और दमयन्ती एक-दूसरे से बिछड़ गए। दमयन्ती जंगल में अकेली और असहाय हो गई। पति से बिछड़ने का दुःख उसके लिए असहनीय था। अन्य सभी मुसीबतों को वह सहन कर रही थी, लेकिन पति-वियोग की पीड़ा उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी।

अचानक एक दिन दमयन्ती की भेंट शरभंग ऋषि से हो गई। ऋषि ने उसकी विपत्ति सुनकर कहा, “पुत्री! तुम गणेशजी की आराधना करो और गणेश चौथ का व्रत करो। इससे तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे।”

दमयन्ती के पास साधन नहीं थे, पर उसने जैसे-तैसे गणेश चौथ का व्रत किया। गणेशजी की कृपा से दमयन्ती को उसका खोया हुआ पति मिल गया और नल को उसका राज्य भी वापस मिल गया।

राजा और रानी गणेशजी के भक्त बन गए, और उनके जीवन में फिर से सुख और शांति लौट आई। इस प्रकार गणेश चौथ के व्रत ने उनके जीवन को बदल दिया।

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आश्विन मास (अक्तूबर) की गणेश चौथ की कथा

यह बहुत पुरानी बात है। मथुरा के राजा कंस का एक शक्तिशाली और वीर रिश्तेदार था, जिसका नाम वाणासुर था। वाणासुर की एक अत्यंत सुंदर पुत्री थी, जिसका नाम ऊषा था। ऊषा के रूप और सौंदर्य की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। वाणासुर ने अपनी प्रिय पुत्री के लिए एक शानदार महल बनवाया था, जहाँ वह अपनी सबसे प्रिय सखी चित्रलेखा के साथ रहती थी।

एक रात, ऊषा ने स्वप्न में एक बेहद आकर्षक और सुंदर युवक को देखा। यह युवक और कोई नहीं, बल्कि भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के बेटे, अनिरुद्ध थे। ऊषा को अनिरुद्ध के रूप और सौंदर्य ने इस कदर मोह लिया कि वह स्वप्न में ही उनसे प्रेमालिंगन करने को आतुर हो उठी। लेकिन जैसे ही वह निकट आई, उसकी नींद खुल गई। स्वप्न टूट गया, पर अनिरुद्ध का चेहरा उसकी स्मृतियों में गहराई से बस गया था। वह उस अजनबी राजकुमार से मिलने के लिए तड़पने लगी।

उत्कट प्रेम और उसकी बेचैनी को देखकर, ऊषा ने अपनी सखी चित्रलेखा से अपने दिल की बात साझा की। उसने चित्रलेखा को उस राजकुमार का वर्णन किया, जिसे उसने स्वप्न में देखा था। चित्रलेखा, जो चित्रकला और गूढ़ विद्याओं में निपुण थी, तुरंत समझ गई कि ऊषा ने स्वप्न में अनिरुद्ध को देखा है। उसने ऊषा से वचन दिया कि वह किसी भी प्रकार से उस राजकुमार को ढूँढकर उसके पास ले आएगी।

अपनी दिव्य शक्तियों का उपयोग करते हुए, चित्रलेखा अनिरुद्ध को ढूँढ़ने निकली और उसे सोते हुए वाणासुर के महल में लाकर ऊषा के पास पहुँचा दिया। अनिरुद्ध, जो इस पूरी घटना से अनजान था, अचानक अपने आपको अजनबी महल में पाकर आश्चर्यचकित हो गया। लेकिन ऊषा का प्रेम और स्नेह देखकर वह भी आकर्षित हो गया, और दोनों के बीच प्रेम की एक नई कहानी शुरू हो गई।

इस बीच, अनिरुद्ध के घर में हड़कंप मच गया था। उसके गायब हो जाने से उसके माता-पिता और दादी रुक्मिणी बेहद चिंतित हो गए थे। श्रीकृष्ण भी दुखी थे और अपने पौत्र को ढूँढ़ने के लिए कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। आखिरकार, श्रीकृष्ण ने इस समस्या को अपनी राजसभा में ऋषि लोमश के सामने रखा।

लोमश ऋषि ने श्रीकृष्ण को सुझाव दिया कि वे गणेश-व्रत करें। गणेशजी की कृपा से उन्हें अपने पौत्र के बारे में जानकारी मिल जाएगी। श्रीकृष्ण ने ऋषि के सुझाव का पालन किया और गणेश-व्रत करने के बाद उन्हें पता चल गया कि अनिरुद्ध वाणासुर के महल में है।

श्रीकृष्ण अपनी सेना के साथ वाणासुर के महल पर चढ़ाई कर दी। वाणासुर और श्रीकृष्ण के बीच भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन अंत में श्रीकृष्ण ने विजय प्राप्त की। उन्होंने ऊषा और अनिरुद्ध को वाणासुर से माँग लिया और उन्हें साथ लेकर द्वारका लौट आए।

इस प्रकार, गणेशजी की कृपा से ऊषा और अनिरुद्ध का प्रेम सफल हुआ, और परिवार फिर से एकजुट हो गया।

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कार्तिक मास (नवंबर) की गणेश चौथ की कथा

एक बार की बात है, मुनि अगस्त्य समुद्र के किनारे कठोर तपस्या कर रहे थे। उसी स्थान से कुछ दूरी पर एक पक्षी अपने अंडों की सुरक्षा के लिए उन पर बैठा था। अचानक समुद्र में भयंकर तूफान आया, जिससे जल का स्तर तेजी से बढ़ने लगा और पक्षी के अंडे बह गए। यह देखकर पक्षी अत्यंत दुखी हो गया और उसने प्रतिज्ञा की, “मैं इस समुद्र के जल को समाप्त कर दूंगा।”

पक्षी ने अपनी चोंच से समुद्र का पानी उठाकर बाहर फेंकना शुरू किया। लेकिन विशाल समुद्र को चोंच भर पानी से कैसे सुखाया जा सकता था? काफी समय बीतने के बाद भी समुद्र का जल न घटा, न सूखा। अंततः निराश पक्षी मुनि अगस्त्य के पास गया और अपनी समस्या सुनाई।

मुनि अगस्त्य ने गणेश जी का ध्यान करते हुए गणेश चतुर्थी का व्रत किया। गणेश जी की कृपा से मुनि को अपार शक्ति प्राप्त हुई, जिससे वे समुद्र का सारा जल सोखने में सक्षम हो गए। मुनि अगस्त्य ने समुद्र को सोख लिया, और इस प्रकार पक्षी के अंडे सुरक्षित रह गए।

गणेश जी की कृपा से सबकुछ फिर से सामान्य हो गया।

अगहन मास (दिसंबर) की गणेश चौथ की कथा

त्रेता युग में अयोध्या के एक धर्मात्मा राजा, दशरथ, राज्य करते थे। एक बार राजा दशरथ शिकार खेलने जंगल गए। उन्होंने अपनी अद्वितीय शब्दवेधी बाण विद्या का उपयोग किया, लेकिन दुर्भाग्यवश उनका बाण सरयू नदी से अपने अंधे माता-पिता के लिए जल लेने आए एक ऋषिपुत्र, श्रवण कुमार, को लग गया। बाण के प्रहार से श्रवण कुमार घायल हो गए और पीड़ा में राजा दशरथ को अपनी पूरी कहानी सुनाई। उसने राजा से निवेदन किया कि वे उसके माता-पिता को जल पिला दें। इतना कहकर श्रवण ने अपने प्राण त्याग दिए।

राजा दशरथ भारी मन से श्रवण के अंधे माता-पिता के पास पहुँचे और उन्हें जल पिलाने के बाद इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का सारा विवरण दिया। दुख और क्रोध से भरे श्रवण के पिता ने राजा को शाप दिया, “जैसे मैं अपने पुत्र के शोक में मर रहा हूँ, वैसे ही तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र-शोक में होगी।”

समय बीतता गया, और पुत्र प्राप्ति की इच्छा से राजा दशरथ ने यज्ञ किया। यज्ञ के फलस्वरूप भगवान श्रीरामचंद्र उनके पुत्र रूप में जन्मे। लेकिन भाग्य ने उनके जीवन में वही दुख लाया, जिसका श्रवण के पिता ने शाप दिया था। जब राम का वनवास हुआ और सीता का रावण द्वारा हरण कर लिया गया, तो राम को सीता की खोज में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

इस दौरान, जटायु नामक पक्षी रावण से संघर्ष करते हुए मारा गया। मरते समय उसने राम को बताया कि सीता को रावण लंका ले गया है। बाद में, जटायु के भाई, संपाति, ने सीता का पता लगाया और जानकारी दी कि वह रावण की अशोक वाटिका में कैद है।

राम के विश्वसनीय सेवक हनुमान जी ने श्रीराम की आज्ञा से गणेश जी का व्रत किया। गणेश जी की कृपा से हनुमान अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त कर बिना विलंब किए समुद्र लाँघकर लंका पहुँचे। वहाँ उन्होंने सीता माता से भेंट की और उन्हें श्रीराम की कुशलता का संदेश सुनाया।

अंततः, श्रीराम ने लंका पर विजय प्राप्त की और सीता माता को रावण के बंधन से मुक्त किया। इस प्रकार, राम और सीता का पुनर्मिलन हुआ, और राम ने अयोध्या लौटकर अपने राज्य को फिर से समृद्ध किया।

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पौष मास (जनवरी) की गणेश चौथ की कथा

एक बार रावण ने अपनी अपार शक्ति और अभिमान के चलते स्वर्ग के सभी देवताओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपने अधीन कर लिया। इस जीत से उत्साहित रावण ने संध्या वंदन करते समय वानरों के राजा बालि को भी पकड़ने की कोशिश की। बालि, जो अपनी अद्वितीय पराक्रम और शक्ति के लिए विख्यात था, रावण के इस प्रयास से विचलित नहीं हुआ। उसने रावण को अपने बगल में दबोच लिया और उसे अपनी राजधानी किष्किंधा ले आया।

किष्किंधा में बालि ने रावण को अपने पुत्र अंगद के लिए खिलौना बना दिया। बालक अंगद, रावण को एक साधारण खिलौना समझकर रस्सियों से बाँधकर उसे इधर-उधर खींचता रहता। किष्किंधा के लोग इस दृश्य को देखकर हँसी-मजाक करते, और रावण, जो कभी देवताओं का पराभव करने वाला था, अब अंगद के खेल का हिस्सा बन गया था।

यह स्थिति रावण के असीम अभिमान का परिणाम थी। उसे अपने बल पर गर्व था, परंतु बालि के समक्ष उसकी शक्ति नगण्य हो गई। जब रावण इस अपमानजनक स्थिति में फँसा रहा, तब उसके दादा, महर्षि पुलस्त्य, ने उसे समझाया कि यह सब उसके घमंड का फल है। उन्होंने सलाह दी कि रावण को अपने उद्धार के लिए विघ्नविनाशक भगवान गणेश की तपस्या करनी चाहिए।

रावण ने पुलस्त्य की बात मानी और गणेश जी की कठोर तपस्या शुरू की। भगवान गणेश ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे बंधन से मुक्त कर दिया। इस प्रकार, रावण ने अपने अहंकार को नियंत्रित करना सीखा और गणेश जी की कृपा से उसे पुनः स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

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माघ मास (फरवरी) की गणेश चौथ की कथा

सतयुग में राजा हरिश्चंद्र नामक एक धर्मनिष्ठ और सत्यवादी राजा का शासन था। उनकी प्रजा सुखी और समृद्ध थी। उनके राज्य में शांति और न्याय का वास था। एक दिन, राज्य के एक ब्राह्मण के घर पुत्र का जन्म हुआ, लेकिन दुर्भाग्यवश उसी समय उस ब्राह्मण की मृत्यु हो गई। उसकी विधवा पत्नी ने अपने पुत्र का पालन-पोषण करते हुए गणेश चतुर्थी का व्रत और पूजन करना प्रारंभ किया। वह गणेश जी में अटूट आस्था रखती थी और नियमित रूप से व्रत करती थी।

समय बीता और ब्राह्मण का पुत्र बड़ा होकर आसपास खेलने लगा। उसी गांव में एक कुम्हार भी रहता था। एक दिन किसी ने कुम्हार को यह कहकर बहकाया कि यदि वह किसी बालक की बलि अपने बर्तन पकाने के आवा (भट्टी) में दे देगा, तो उसका आवा हमेशा जलता रहेगा और बर्तन कभी खराब नहीं होंगे। कुम्हार इस बात पर विश्वास कर बैठा और जब उसने ब्राह्मण के बालक को गणेशजी की मूर्ति के पास खेलते देखा, तो उसे पकड़कर अपने आवा में डाल दिया और आग लगा दी।

काफी देर बीतने के बाद भी जब बालक घर नहीं लौटा, तो उसकी माँ बहुत चिंतित हो गई। उसने अपने पुत्र की सुरक्षा के लिए गणेशजी से प्रार्थना की और अपनी भक्ति के बल पर गणेश जी की कृपा मांगी। गणेशजी की कृपा से, बालक सुरक्षित रहा, और आग का उसे कोई नुकसान नहीं हुआ। बस उसके शरीर पर हल्का-सा जल का निशान भर आया।

जब कुम्हार ने देखा कि बालक जीवित और सुरक्षित है, तो उसे अपने किए पर गहरा पश्चाताप हुआ। वह राजा हरिश्चंद्र के पास जाकर अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा। राजा ने ब्राह्मणी को बुलाकर पूरे मामले की जानकारी ली। ब्राह्मणी ने बताया कि यह सब गणेशजी की कृपा और सकट चौथ के व्रत के फलस्वरूप हुआ है। इसी व्रत की शक्ति से उसके पुत्र के प्राण बच सके।

तब ब्राह्मणी ने कुम्हार से कहा, “यदि तुम भी सच्चे मन से गणेश जी की पूजा करोगे और सकट चौथ का व्रत करोगे, तो तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे।” कुम्हार ने ब्राह्मणी की बात मानी और गणेश चतुर्थी का व्रत करना शुरू किया। गणेश जी की कृपा से उसके सभी कष्ट समाप्त हो गए, और वह भी सुखी जीवन जीने लगा।

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फाल्गुन मास (मार्च) की गणेश चौथ की कथा

सतयुग की बात है, एक धर्मनिष्ठ राजा का राज्य था, जहाँ प्रजा सुखी और समृद्ध थी। उसी राज्य में विष्णु शर्मा नामक एक अत्यंत धार्मिक और आदर्श ब्राह्मण भी रहते थे। विष्णु शर्मा के सात पुत्र थे, जो अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त थे और अलग-अलग रहते थे।

विष्णु शर्मा जब वृद्ध हो गए, तो उन्होंने अपनी बहुओं को बुलाकर उनसे कहा, “तुम सबको गणेश चतुर्थी का व्रत करना चाहिए, क्योंकि यह व्रत भगवान गणेश की कृपा पाने का उत्तम साधन है।” विष्णु शर्मा स्वयं नियमित रूप से गणेश चतुर्थी का व्रत किया करते थे, लेकिन अब वृद्धावस्था के कारण वे यह दायित्व अपनी बहुओं को सौंपना चाहते थे।

हालाँकि, उनकी बहुओं ने उनकी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने नाक-भौं सिकोड़ते हुए विष्णु शर्मा की बात को टाल दिया और उनका अपमान किया। केवल उनकी सबसे छोटी बहू ने अपने ससुर की बात को मानते हुए गणेश चतुर्थी का व्रत करने का निर्णय लिया। उसने पूजा की सभी आवश्यक सामग्री जुटाई और ससुर के साथ व्रत किया। उसने स्वयं उपवास रखा और ससुर को भोजन कराकर उनकी सेवा की।

उसी रात, आधी रात के बाद, विष्णु शर्मा को अचानक उल्टी और दस्त लगने लगे। उनकी स्थिति बिगड़ गई। छोटी बहू ने बिना कोई संकोच किए ससुर की सेवा की। उसने मल-मूत्र से गंदे हुए कपड़े साफ किए, ससुर का शरीर धोया और पोंछा। पूरी रात बिना कुछ खाए-पिए वह जागकर अपने ससुर की देखभाल करती रही।

भगवान गणेश ने उसकी सच्ची भक्ति और सेवा से प्रसन्न होकर अपनी कृपा बरसाई। विष्णु शर्मा का स्वास्थ्य पूरी तरह ठीक हो गया, और छोटी बहू का घर धन-धान्य से भर गया। उसकी निष्ठा और सेवा के कारण उसका परिवार सुख-समृद्धि से पूर्ण हो गया।

यह चमत्कार देखकर अन्य बहुएँ भी इस घटना से प्रेरित हुईं। उन्होंने अपने अहंकार और आलस्य को त्यागकर गणेश चतुर्थी का व्रत किया और भगवान गणेश की कृपा प्राप्त की। इस प्रकार, पूरे परिवार में धार्मिक आस्था और भक्ति का संचार हुआ, और वे सब सुखमय जीवन जीने लगे।

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