गरुड़ ने अमृत छीन लिया और इन्द्र केवल देखते रह गए

गरुड़ ने अमृत छीन लिया और इन्द्र केवल देखते रह गए

गरुड़ की माता विनता सहस्त्रों वर्षों से छल से नागों की दासी बनकर दीनहीन जीवन व्यतीत कर रही थीं। यह देखकर गरुड़ ने नागों से अपनी माता को इस दासत्व से मुक्त करने का उपाय पूछा। नागों ने कहा, “यदि तुम स्वर्ग से अमृत लाकर हमें दोगे, तो हम तुम्हारी माता को मुक्त कर देंगे।”

अमृत लेने स्वर्गलोक पहुचे गरुड़

गरुड़ ने अपनी माता विनता को कद्रु और उसके पुत्र नागों के दासत्व से मुक्त कराने के लिए स्वर्गलोक की उड़ान भरी। सूर्य की किरणों के समान उज्ज्वल और सुनहरे शरीर वाले गरुड़ ने बड़े वेग से स्वर्ग में प्रवेश किया, जहाँ अमृत का स्थान था। वहाँ उन्होंने देखा कि अमृत की रक्षा के लिए दो भयंकर सर्प नियुक्त थे। उनकी लपलपाती जीभें, चमकती आँखें और अग्नि जैसे शरीर थे। गरुड़ ने अपने शक्तिशाली चोंच और पंजों से उन सर्पों को कुचल दिया और बड़े वेग से अमृतपात्र लेकर वहाँ से उड़ चले। गरुड़ ने स्वयं अमृत नहीं पिया, बल्कि उसे लेकर नागों के पास चल दिए।

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भगवान विष्णु ने गरुड़ को वरदान दिया

मार्ग में उन्हें भगवान विष्णु के दर्शन हुए। भगवान विष्णु ने देखा कि गरुड़ के मन में अमृत पीने का कोई लोभ नहीं है, इस पर वे अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने गरुड़ से कहा, “गरुड़! मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूँ। जो चाहो, मांग लो।” गरुड़ ने विनम्रता से कहा, “भगवन्, एक तो आप मुझे अपनी ध्वजा में स्थान दें और दूसरा, मैं बिना अमृत पिए ही अजर-अमर हो जाऊँ।” भगवान विष्णु ने ‘तथास्तु’ कहा। तब गरुड़ ने भगवान से कहा, “भगवान, मैं भी आपको एक वरदान देना चाहता हूँ। आप मुझसे कुछ मांग लीजिये।” श्री हरि ने मुस्कुराते हुए कहा, “तुम मेरे वाहन बन जाओ।” गरुड़ ने “ऐसा ही होगा, प्रभु” कहकर भगवान विष्णु से अनुमति ली और फिर से अपनी उड़ान भरी।

इन्द्र और गरुड़ की मित्रता

इतने में इन्द्र वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने गरुड़ को अमृत ले जाते हुए देखा और क्रोध में भरकर उन पर वज्र चलाया। वज्र के प्रहार से भी गरुड़ हंसते हुए बोले, “इन्द्र! जिनकी हड्डी से यह वज्र बना है, उनके सम्मान के लिए मैं अपना एक पंख छोड़ देता हूँ। वज्र के प्रहार से मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई है।” यह कहकर गरुड़ ने अपना एक पंख गिरा दिया। इन्द्र ने चकित होकर कहा, “धन्य है यह पराक्रमी पक्षी!” उन्होंने गरुड़ से मित्रता की इच्छा व्यक्त की और पूछा, “आपमें कितना बल है?” गरुड़ ने विनम्रता से कहा, “देवराज! बल की प्रशंसा करना सत्पुरुषों के लिए उचित नहीं है। लेकिन आप मेरे मित्र हैं, इसलिए बताता हूँ कि मैं पूरे पृथ्वी को, पर्वत, वन, समुद्र और जल सहित अपने एक पंख पर उठाकर आसानी से उड़ सकता हूँ।” इन्द्र ने गरुड़ की शक्ति और विनम्रता से प्रभावित होकर मित्रता स्वीकार कर ली और कहा, “यदि आपको अमृत की आवश्यकता नहीं है, तो कृपया इसे मुझे दे दीजिए।”

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इसलिए सर्पों को गरुड़ खाते हैं

गरुड़ ने कहा, “देवराज, अमृत को ले जाने का केवल एक कारण है—मैं इसे किसी को पिलाना नहीं चाहता हूँ। आप मेरे पीछे चलें, और जहाँ मैं इसे रखूँ, वहाँ से आप अमृत उठा लीजिएगा।” इन्द्र ने संतुष्ट होकर गरुड़ से वरदान मांगने को कहा। गरुड़ को नागों की दुष्टता और अपनी माता के दुःख का स्मरण हो आया। उन्होंने वरदान माँगा, “ये बलवान् सर्प ही मेरे भोजन की सामग्री हों।” इन्द्र ने ‘तथास्तु’ कहा। इस प्रकार, आज भी गरुड़ सर्पों को अपना आहार बनाते हैं।

इस वजह से कुश को पवित्र माना जाता है

गरुड़ सर्पों के स्थान पर पहुँचे, जहाँ उनकी माता विनता भी उपस्थित थीं। गरुड़ ने सर्पों से कहा, “यह लो, मैं अमृत ले आया हूँ। लेकिन इसे पीने में जल्दी मत करो। मैं इसे कुशों पर रख देता हूँ। स्नान करके पवित्र हो लो, फिर इसे पीना। अब तुम लोगों के अनुसार मेरी माता दासत्व से मुक्त हो गई, क्योंकि मैंने तुम्हारी शर्त पूरी कर दी है।” सर्पों ने गरुड़ की बात मान ली। जब सर्पगण स्नान करने के लिए गए, तब इन्द्र अमृत का कलश उठाकर स्वर्ग में ले गए। लौटकर सर्पों ने देखा कि अमृत वहाँ नहीं था। वे गरुड़ का खेल समझ गए। फिर यह सोचकर कि अमृत का अंश कुशों पर लगा हो सकता है, सर्पों ने कुशों को चाटना शुरू किया। ऐसा करते ही उनकी जीभ के दो-दो टुकड़े हो गए। अमृत का स्पर्श होने से कुश पवित्र माने जाने लगे।

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