गोवत्स द्वादशी का पर्व, कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन का विशेष महत्त्व गौमाता और उनके बछड़े की पूजा से जुड़ा है। यह त्योहार भारतीय संस्कृति में गौ-सेवा, जीवन-निर्वाह की शक्ति, और जीवों के प्रति करुणा का प्रतीक है। गौमाता का भारतीय समाज में एक विशेष स्थान है; उन्हें माता के समान पूजनीय माना जाता है, क्योंकि वे मानव जीवन के पालन और विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। इस व्रत में स्त्रियाँ विशेष रूप से गौमाता और बछड़े की सेवा करती हैं और उनके संरक्षण की कामना करती हैं।
प्रातःकाल से ही घर की महिलाएँ स्नानादि करके, गाय और उसके बछड़े को स्नान कराती हैं, फिर विधिपूर्वक उनकी पूजा करती हैं। पूजा में उन्हें गेंहू से बने पदार्थ, गुड़, तिल और फल खिलाए जाते हैं। इसके साथ ही, गोवत्स द्वादशी के दिन एक विशेष नियम है कि इस दिन गाय का दूध, गेहूँ से बनी वस्तुएँ, और कटे हुए फल का सेवन वर्जित होता है। इस नियम का पालन करते हुए भक्तजन अपनी भक्ति और सेवा के माध्यम से पुण्य अर्जित करते हैं। गोवत्स द्वादशी की कथा सुनने के पश्चात्, ब्राह्मणों को फल दान करने का भी विधान है, जिससे व्रती का व्रत पूर्ण माना जाता है।
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गोवत्स द्वादशी की पौराणिक कथा
बहुत समय पहले, सुवर्णपुर नामक नगर में एक महान राजा, देव दानी राज्य किया करते थे। राजा देव दानी अपने नाम के अनुरूप बहुत ही दानी और धर्मपरायण व्यक्ति थे। उनके राज्य में प्रजा सुख-समृद्धि से परिपूर्ण थी और वहाँ के लोग धार्मिक और आस्थावान थे। राजा की दो रानियाँ थीं – सीता और गीता। रानी सीता और गीता, दोनों ही अपने-अपने पशुओं के प्रति अलग-अलग भावनाएँ रखती थीं। सीता रानी भैंस से बहुत प्रेम करती थीं, जबकि गीता रानी गाय और उसके बछड़े को पुत्र-समान मानती थीं। गीता का अपने गौ-बछड़े के प्रति इतना प्रेम देखकर सीता रानी के मन में जलन होने लगी।
एक दिन भैंस, जो कि सीता रानी की प्रिय थी, उनसे बोली, “हे रानी! देखो, गीता रानी हमेशा अपने गाय और बछड़े के साथ रहती हैं, उन्हें इतना प्यार करती हैं कि मुझे उनकी ओर से ईर्ष्या हो रही है। आप भी मुझे उतना ही प्रेम क्यों नहीं देतीं?”
यह सुनकर सीता रानी का दिल भी जल उठा और उन्होंने भैंस से कहा, “चिंता मत करो, मैं जल्द ही इस स्थिति को बदल दूँगी।” ईर्ष्या और द्वेष की भावना से भरकर, सीता रानी ने सोचा कि अगर गीता के प्यारे बछड़े को रास्ते से हटा दिया जाए, तो गीता के पास गर्व करने का कोई कारण नहीं रहेगा।
उसी दिन, सीता रानी ने एक क्रूर निर्णय लिया। उन्होंने चुपके से गीता की गाय के बछड़े को मारकर गेहूँ के ढेर में गाड़ दिया। इस घोर पाप का किसी को पता नहीं चला, क्योंकि सीता रानी ने इस कृत्य को अत्यंत गोपनीयता से अंजाम दिया था।
अगले दिन, राजा देव दानी जब भोजन करने बैठे, तो अजीब घटनाएँ घटित होने लगीं। जैसे ही राजा ने भोजन ग्रहण करने का प्रयास किया, महल के चारों ओर मांस की वर्षा होने लगी। भोजन की थाली में रखा हुआ भोजन अचानक मल-मूत्र में परिवर्तित हो गया, और पूरे महल में रक्त और मांस के टुकड़े फैल गए। राजा यह दृश्य देखकर अत्यंत व्यथित हो गए और सोचने लगे कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है।
राजा के मन में तरह-तरह के विचार उठने लगे, लेकिन उन्हें इस विपत्ति का कोई स्पष्ट कारण समझ नहीं आ रहा था। तभी अचानक आकाशवाणी हुई। एक दिव्य आवाज ने राजा से कहा, “हे राजन्! यह सब तुम्हारी रानी सीता द्वारा किए गए पाप का परिणाम है। उसने गीता रानी की गाय के बछड़े को मारकर गेहूँ के ढेर में गाड़ दिया है। इस कारण यह संकट तुम्हारे राज्य और महल पर आ पड़ा है। कल गोवत्स द्वादशी का पर्व है। यदि तुम इस विपत्ति से मुक्ति पाना चाहते हो, तो तुम्हें भैंस को राज्य से बाहर निकालना होगा और गौमाता और उसके बछड़े की विधिपूर्वक पूजा करनी होगी। ध्यान रहे, इस दिन दूध, गेहूँ से बनी वस्तुएँ और कटे हुए फल का सेवन न करना, अन्यथा तुम्हारा तप नष्ट हो जाएगा। अगर तुमने इस विधि से पूजा की, तो बछड़ा फिर से जीवित हो जाएगा और राज्य में शांति लौट आएगी।”
राजा ने यह आकाशवाणी सुनी और तुरंत आभास हुआ कि इस संकट से निकलने का एकमात्र उपाय गोवत्स द्वादशी के व्रत का पालन करना है। राजा ने उसी समय भैंस को राज्य से बाहर भिजवा दिया और अगले दिन विधिपूर्वक गाय और बछड़े की पूजा करने की तैयारी शुरू की।
गोवत्स द्वादशी की पूजा और बछड़े का पुनः जीवन
अगले दिन, गोवत्स द्वादशी के अवसर पर, राजा देव दानी ने विधिपूर्वक गौमाता और उसके बछड़े की पूजा की। उन्होंने आकाशवाणी के निर्देशानुसार स्नान करके पूजा की सभी आवश्यक सामग्रियाँ जुटाईं। राजा ने विशेष रूप से गेहूँ से बने पदार्थ, कटे फल और गाय का दूध ग्रहण न करने का संकल्प लिया। सायंकाल के समय, जब गाय महल के निकट आई, राजा ने श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा की। पूजा करते समय, राजा ने मन में गहरे प्रेम और भक्ति के साथ गाय के बछड़े को याद किया।
आश्चर्य की बात यह थी कि जैसे ही राजा ने बछड़े को याद किया, वैसे ही वह बछड़ा, जो गेहूँ के ढेर में दफनाया गया था, जीवित होकर बाहर आ गया। राजा यह दृश्य देखकर अत्यधिक प्रसन्न हो गए और उन्होंने गौमाता और बछड़े के चरणों में झुककर आशीर्वाद लिया। महल में सभी ने इस चमत्कार को देखा और देवी-देवताओं का धन्यवाद किया।
इस घटना के बाद, राजा देव दानी ने अपने पूरे राज्य में यह आदेश दिया कि सभी लोग गोवत्स द्वादशी का व्रत श्रद्धापूर्वक करें। उन्होंने इस पर्व के महत्त्व को समझाते हुए कहा कि गाय और बछड़े की पूजा करने से परिवार में सुख, समृद्धि और शांति आती है। तभी से इस व्रत को सुवर्णपुर नगर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में मनाने की परंपरा चली आ रही है।
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गोवत्स द्वादशी का महत्त्व
गोवत्स द्वादशी का पर्व केवल धार्मिक महत्व ही नहीं, बल्कि इसके पीछे गहरा सामाजिक और सांस्कृतिक संदेश भी छिपा है। यह त्योहार हमें सिखाता है कि गाय और उसके बछड़े के प्रति करुणा, सेवा, और प्रेम दिखाना हमारे जीवन में सुख और समृद्धि लाता है। गाय भारतीय समाज में केवल एक पशु नहीं है, बल्कि उसे माता का दर्जा दिया गया है, क्योंकि वह जीवनदायिनी है। गोवत्स द्वादशी के माध्यम से हमें यह समझना चाहिए कि सभी जीवों के प्रति दया और करुणा दिखाना हमारा कर्तव्य है, और यह व्रत इस भावना को प्रकट करने का एक माध्यम है।
गाय और उसके बछड़े की पूजा करके व्यक्ति अपने सभी कष्टों से मुक्ति पा सकता है और अपने परिवार में खुशहाली ला सकता है। यह त्योहार भारतीय संस्कृति की उस गहन भावना को व्यक्त करता है, जो जीवों के प्रति दया, सेवा, और परोपकार को प्रोत्साहित करती है। गोवत्स द्वादशी का व्रत करने वाली स्त्रियाँ अपने परिवार के कल्याण, समृद्धि, और जीवन के सुखों के लिए यह तपस्या करती हैं, और इसका फल उन्हें न केवल इस जीवन में, बल्कि अगले जीवन में भी मिलता है।
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