निस्वार्थ कर्म: आंतरिक शांति की ओर एक कदम

निस्वार्थ कर्म: आंतरिक शांति की ओर एक कदम

आध्यात्मिकता और निस्वार्थ कर्म का हमारे जीवन में गहरा महत्व है। यह एक ऐसा विषय है जिसे समझना और जीवन में लागू करना आवश्यक है। जब हम किसी भी कार्य को बिना किसी स्वार्थ या अहंकार के करते हैं, तब हम वास्तविक शांति और संतोष का अनुभव कर सकते हैं। लेकिन, यदि हम अपने कार्यों में स्वार्थ, अहंकार, या किसी प्रकार की प्रशंसा की इच्छा को सम्मिलित कर लेते हैं, तो उस कार्य का मूल उद्देश्य कहीं खो जाता है।

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।

अर्थात: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “जो व्यक्ति सभी इच्छाओं और कामनाओं को त्यागकर, ममता और अहंकार से मुक्त होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, वही शांति प्राप्त करता है।”

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सरल शब्दों में इसे इस तरह समझा जा सकता है: जब हम कोई भी काम करते हैं, चाहे वह हमारी रोज़मर्रा की ज़िम्मेदारियाँ हों या किसी की मदद जैसा अच्छा काम, अगर उसमें स्वार्थ या अहंकार जुड़ा होता है, तो उससे हमें वास्तविक संतोष नहीं मिल पाता। उदाहरण के लिए, जब हम किसी की मदद करना चाहते हैं, यह विचार बेहद सराहनीय होता है। लेकिन अगर इस मदद के साथ हम यह सोचते हैं कि इसके बदले हमें प्रशंसा मिलेगी, पुण्य प्राप्त होगा, या हमारे कर्म सुधारेंगे, तो यह निस्वार्थ नहीं होता। ऐसी स्थिति में हो सकता है कि हमें पुण्य मिले, लेकिन आंतरिक शांति नहीं मिलेगी। यह सिद्धांत जीवन के हर पहलू में लागू होता है।

इस बात को बेहतर समझने के लिए चलिए हमारे व्यावहारिक जीवन से एक उदाहरण लेते हैं। अक्सर हम अपनी संतान को एक निवेश के रूप में देखते हैं, लेकिन क्या यह दृष्टिकोण सही है? इसका उत्तर है, नहीं, बिल्कुल भी सही नहीं है। हमें अपने बच्चों को कभी भी निवेश के रूप में नहीं देखना चाहिए कि आज हम उन्हें अच्छी परवरिश देंगे, अच्छे स्कूल और कॉलेज में पढ़ाएंगे, ताकि कल वे अच्छा पैसा कमाकर हमारी देखभाल करें। हमें यह समझना चाहिए कि बच्चों की अच्छी परवरिश करना माता-पिता की जिम्मेदारी है। अगर हम उन्हें सही दिशा दिखाते हैं, तो यह हमारे कर्तव्य का निर्वाह है, न कि किसी भविष्य के लाभ की उम्मीद। ऐसी अपेक्षाएं भविष्य में हमारे दुःख का कारण बन सकती हैं और वर्तमान में अहंकार और घमंड का।

इसी प्रकार, जब हम दान करते हैं, हमारी सोच यह होनी चाहिए कि हम दान इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हम सक्षम हैं, न कि इसलिए कि इसके बदले हमें प्रचार या प्रसिद्धि मिलेगी। ऐसी सोच अहंकार की निशानी होती है, और जिस हृदय में अहंकार रहता है, वहां ईश्वर का वास नहीं होता। ऐसे हृदय में सच्ची शांति भी नहीं मिलती। अपने कर्तव्यों का पालन करना और जरूरतमंदों की मदद करना हमारा नैतिक दायित्व है, जिसे हमें पूरी निस्वार्थता के साथ निभाना चाहिए।

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चलों अब आपके खुद के जीवन की बात कर लेते हैं। आपने जीवन भर खूब मेहनत की, और अब आपको लगता है कि आपके परिवार को आपके प्रति आभारी होना चाहिए। हो सकता है, वे होंगे भी। लेकिन एक समय के बाद वे इस आभार का प्रदर्शन करना बंद कर देंगे, जबकि आप उनसे यह अपेक्षा करेंगे। जब आपकी यह अपेक्षा पूरी नहीं होती, तो आप दुखी हो जाते हैं। वास्तव में, आपने अपने परिवार के प्रति कोई अहसान नहीं किया है; आपने जो भी किया, वह आपके कर्तव्यों का हिस्सा था। परिवार का मुखिया होने के नाते, अपने परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाना आपका कर्तव्य है।

इसी प्रकार, जब हम पूजा-पाठ करते हैं, यह हमारे उस ईश्वर के प्रति कर्तव्य का पालन होता है, जिसने हमें मनुष्य के रूप में जन्म दिया और धरती पर शुभ कर्म करने का अवसर दिया। पूजा के माध्यम से हम ईश्वर का आभार व्यक्त करते हैं, इसलिए पूजा-पाठ आंतरिक शांति और समझ का विषय होना चाहिए। लेकिन अक्सर हम अपनी पूजा का प्रदर्शन करने लगते हैं। हम समाज, रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच अपनी पूजा, व्रत, और दान का बखान करते हैं, सोशल मीडिया पर स्टेटस लगाते हैं और अपने दान को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। इस तरह के दिखावे से हम वह शांति खो देते हैं, जो हमें पूजा से प्राप्त होनी चाहिए।

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डिस्क्लेमर: इस लेख में कोई जानकारी नही दी गई है बल्कि धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक ग्रंथों, व्यक्तिगत चिंतन और मनन के द्वारा एक सोच प्रस्तुत की गई है। प्रत्येक व्यक्ति की सोच इस संबंध मे अलग हो सकती है adhyatmikaura.in प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज की सोच का सम्मान करता हैं। व्यक्ति को इस लेख से जुड़ी जानकारी अपने जीवन मे उतारने से पहले अपने विवेक का पूर्ण इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए।

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