पापमोचनी एकादशी की कथा

पापमोचनी एकादशी की कथा

सूतजी बोले— “हे ऋषियों! चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम ‘पापमोचनी एकादशी’ है। इस दिन भगवान विष्णु को अर्घ्यदान करके षोडशोपचार पूजा करनी चाहिए। यह व्रत मनुष्य को पापों से मुक्त करने में सहायक होता है। मैं आपको इस व्रत की महानता और उसकी कथा सुनाता हूँ।

प्राचीन काल में एक अति रमणीक वन था, जिसका नाम ‘चैत्ररथ’ था। यह वन अपनी अद्भुत सुंदरता और सुगंधित फूलों के लिए प्रसिद्ध था। यहाँ पर देवराज इंद्र, गंधर्व और अप्सराएँ, देवताओं के साथ मिलकर स्वच्छंद रूप से विहार करते थे। इस वन की हरियाली, मनमोहक नदियाँ, और सुंदर झरने उसे एक अद्भुत स्थान बनाते थे। इसी वन में एक महान ऋषि, मेधावी नामक, तपस्या कर रहे थे।

मेधावी ऋषि शैवोपासक थे और उन्हें अपनी कठोर तपस्या के लिए जाना जाता था। वह दिन-रात भगवान शिव की उपासना में लीन रहते थे। परंतु, उनके तप का वातावरण बहुत ही सुखद और आनंदमय था, जिसके कारण वहाँ की अप्सराएँ भी उनकी आराधना से प्रभावित थीं। इन अप्सराओं में शिवद्रोहिणी, अनंग दासी, तथा अन्य अप्सराएँ थीं जो हर दिन ऋषि की तपस्या का अवलोकन करती थीं।

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एक दिन, रतिनाथ कामदेव ने सोचा कि मेधावी ऋषि की तपस्या को भंग करना आवश्यक है, क्योंकि उनके तप से देवताओं को भी चिंता थी। उन्होंने इस कार्य के लिए मंजुघोषा नामक एक सुंदर अप्सरा को चुना। मंजुघोषा, अपने मोहक नृत्य और संगीत से ऋषि को प्रभावित करने के लिए वहाँ भेजी गई।

जब मंजुघोषा ने नृत्य और गान शुरू किया, तो युवावस्था में संपूर्ण गुणों से युक्त मेधावी ऋषि उनके हाव-भाव और नृत्य में खो गए। उनकी आँखें मंत्रमुग्ध थीं, और धीरे-धीरे, ऋषि ने कामना में लिपट कर अपनी तपस्या को भुला दिया। उन्होंने 57 वर्षों तक केवल मंजुघोषा के साथ रति-क्रीड़ा की और अपनी आध्यात्मिक साधना को भुला दिया।

एक दिन, मंजुघोषा ने अपने स्थान पर जाने की आज्ञा माँगी। ऋषि ने उन्हें जाने दिया, लेकिन जैसे ही उन्होंने अनुमति दी, उनके कानों में एक विचित्र आवाज़ गूंजी। यह आवाज़ उनकी तपस्या की स्मृतियों को पुनर्जीवित कर गई। उन्हें आत्मज्ञान हुआ कि वह अपने जीवन के बहुमूल्य वर्षों को एक क्षणिक सुख के लिए बर्बाद कर चुके हैं।

इस स्थिति में आकर, उन्होंने अप्सरा को पिशाचिनी होने का शाप दे दिया। मंजुघोषा ने जब यह शाप सुना, तो वह भयभीत होकर कांपने लगी। उसने वायु द्वारा प्रताड़ित कदली वृक्ष की भाँति कांपते हुए मुक्ति का उपाय पूछा।

तब मेधावी ऋषि ने उसे पापमोचनी एकादशी का व्रत करने की सलाह दी। उन्होंने कहा, “हे मंजुघोषा! तुम इस व्रत को विधिपूर्वक करो, तुम्हारी मुक्ति का मार्ग इसी में है।” इसके बाद, वह अपने पिता ऋषि च्यवन के आश्रम में गए। वहाँ जाकर उन्होंने अपने शाप और अप्सरा की बात बताई।

जब च्यवन ऋषि ने अपने पुत्र की बात सुनी, तो उन्होंने मेधावी को घोर निंदा की। उन्होंने कहा, “हे पुत्र! तुम्हारी इस आसक्ति ने तुम्हें इस संकट में डाल दिया है। अब तुम्हें पापमोचनी एकादशी का व्रत करने की आवश्यकता है। इससे तुम न केवल अपने पापों से मुक्त होगे, बल्कि तुम्हारी अप्सरा भी स्वर्गलोक में पुनः सुंदर रूप धारण कर सकेगी।”

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मेधावी ऋषि ने अपने पिता की बात को स्वीकार किया और पापमोचनी एकादशी का व्रत करने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने विधिपूर्वक व्रत का पालन किया, जिसमें भगवान विष्णु को अर्घ्यदान दिया और षोडशोपचार पूजा की। इस व्रत के प्रभाव से न केवल मेधावी ऋषि को अपने किए गए पापों का प्रायश्चित मिला, बल्कि मंजुघोषा अप्सरा भी पिशाचिनी देह से मुक्त होकर एक सुंदर रूप धारण करने में सफल हुई।

उसके बाद, मंजुघोषा ने भगवान विष्णु की कृपा से स्वर्गलोक को प्रस्थान किया। वहाँ उसने पुनः अपनी सुंदरता और गुणों के साथ देवताओं का मनोरंजन किया।

इति पापमोचनी एकादशी व्रत कथा सम्पूर्ण।

श्री मन नारायण-नारायण-नारायण। भज मन नारायण-नारायण-नारायण। पापमोचनी एकादशी की जय!

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