परमा एकादशी की कथा

परमा एकादशी की कथा

सूतजी बोले— “हे ऋषियों! पुरुषोत्तम मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को ‘हरिवल्लभा’ या ‘परमा एकादशी’ कहा जाता है। यह व्रत भगवान विष्णु के प्रति समर्पित है और इसकी महिमा अपार है। इस एकादशी का पालन करने से मनुष्य को न केवल पुण्य की प्राप्ति होती है, बल्कि वह विष्णुलोक की ओर भी अग्रसर होता है। अब मैं तुमसे इस व्रत से संबंधित एक प्राचीन कथा सुनाता हूँ, जिससे इस व्रत की महिमा और प्रभाव को और भी गहराई से समझा जा सकता है।

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प्राचीन काल में एक प्रतापी और दानी राजा का राज्य था, जिसका नाम वभ्रुवाहन था। राजा वभ्रुवाहन अपनी दानशीलता और धर्म के प्रति निष्ठा के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। वह प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान किया करता था, विशेषकर ब्राह्मणों को सौ-सौ गाएँ दान देना उसका नियम था। उसका जीवन धर्ममय और कर्तव्यनिष्ठ था, जिसके कारण उसकी प्रजा भी उसे अत्यधिक प्रेम और सम्मान देती थी।

राजा वभ्रुवाहन अपने धर्मपालन और परोपकार से इस बात का दृढ़ विश्वास रखता था कि वह अपने पुण्य कर्मों के कारण स्वर्गलोक में उत्तम स्थान प्राप्त करेगा। उसने अपने जीवन को पूरी तरह से दान और धर्म के मार्ग पर अर्पित कर दिया था। लेकिन दैवयोग से उसे यह ज्ञात नहीं था कि उसके राज्य में एक साधारण सी ब्राह्मणी रहती थी, जिसने भगवान विष्णु की भक्ति के बल पर उसके पुण्य कर्मों को भी पीछे छोड़ दिया था।

राजा के ही राज्य में एक बाल विधवा ब्राह्मणी भी रहती थी, जिसका नाम प्रभावती था। प्रभावती का जीवन कष्टमय था, क्योंकि वह छोटी आयु में ही विधवा हो गई थी। किंतु भगवान विष्णु के प्रति उसकी भक्ति इतनी प्रगाढ़ थी कि उसने अपने दुःखों को भगवान की भक्ति में समर्पित कर दिया था। वह प्रतिदिन भगवान विष्णु और भगवान शंकर की पूजा करती थी और नित्यप्रति स्नान के बाद भगवान के चरणों में अपना जीवन समर्पित कर देती थी।

विशेष रूप से पुरुषोत्तम मास के दौरान प्रभावती ने ‘हरिवल्लभा एकादशी’ का व्रत बड़े ही भक्तिभाव से किया। उसने बिना अन्न ग्रहण किए, दिन-रात भगवान विष्णु की सेवा में समय बिताया। उसकी साधना इतनी गहरी और निष्कपट थी कि भगवान विष्णु उसकी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए। हरिवल्लभा एकादशी का व्रत, जिसे परमा एकादशी भी कहा जाता है, प्रभावती के लिए जीवन का मुख्य आधार बन गया।

दैवयोग से एक दिन राजा वभ्रुवाहन और प्रभावती दोनों की मृत्यु हो गई। उनकी आत्माएँ धर्मराज के दरबार में पहुँचीं, जहाँ न्याय और धर्म का मापन होता है। धर्मराज का दरबार आत्माओं का न्यायालय है, जहाँ उनके कर्मों के आधार पर उनके अगले जन्म का निर्णय लिया जाता है या उन्हें स्वर्ग अथवा अन्य लोक में स्थान दिया जाता है।

धर्मराज के दरबार में राजा वभ्रुवाहन और ब्राह्मणी प्रभावती साथ-साथ पहुँचे। धर्मराज ने अपने सिंहासन से उठकर ब्राह्मणी प्रभावती का बड़े सम्मान के साथ स्वागत किया। उन्होंने प्रभावती को श्रद्धा और आदर के साथ देखा, जबकि राजा वभ्रुवाहन को उतना सम्मान प्राप्त नहीं हुआ जितना उसे अपने पुण्य कर्मों के कारण आशा थी।

राजा वभ्रुवाहन, जिसने अपने जीवन में इतने बड़े-बड़े दान दिए थे, अत्यंत आश्चर्यचकित रह गया। उसे यह बात समझ में नहीं आई कि उसकी तुलना में एक साधारण सी ब्राह्मणी को धर्मराज द्वारा इतना सम्मान क्यों दिया जा रहा है। उसके मन में यह विचार उठा कि उसने जीवनभर इतना दान और पुण्य किया है, फिर भी उसे वह आदर क्यों नहीं प्राप्त हो रहा, जो इस विधवा ब्राह्मणी को प्राप्त हो रहा है।

उसी समय चित्रगुप्त वहाँ आए, जो धर्मराज के लेखाकार हैं और सभी जीवों के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। चित्रगुप्त ने राजा वभ्रुवाहन और ब्राह्मणी प्रभावती के कर्मों के आधार पर उनके गंतव्य की घोषणा की। चित्रगुप्त ने कहा, ‘हे राजन! तुम्हारे दान और पुण्य कर्मों के कारण तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति होगी, लेकिन ब्राह्मणी प्रभावती का व्रत, जो हरिवल्लभा एकादशी का था, उसे विष्णुलोक का द्वार खुलवा रहा है।’

यह सुनकर राजा और भी विस्मित हो गया। वह समझ नहीं पाया कि कैसे उसकी इतनी तपस्या और दानशीलता से कहीं अधिक एक साधारण विधवा ब्राह्मणी का एकादशी व्रत हो सकता है। उसे यह बहुत विचित्र लगा कि भगवान विष्णु के एक व्रत का पालन इतने महान पुण्य का फल दे सकता है, जो उसके सारे दानों और यज्ञों से भी श्रेष्ठ था।

राजा वभ्रुवाहन ने धर्मराज से अपनी जिज्ञासा व्यक्त की और उनसे पूछा, ‘हे धर्मराज! मैंने जीवनभर धर्म का पालन किया, ब्राह्मणों की सेवा की, और बड़े-बड़े यज्ञ और दान किए। फिर यह कैसे हो सकता है कि इस साधारण ब्राह्मणी को मुझसे अधिक सम्मान और पुण्य प्राप्त हो? इसका क्या कारण है?’

धर्मराज ने राजा के प्रश्न को ध्यानपूर्वक सुना और फिर उत्तर दिया, ‘हे राजन! तुम्हारे द्वारा किए गए दान और पुण्य कर्म निश्चित रूप से सराहनीय हैं, और इसके लिए तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति होगी। किंतु ब्राह्मणी प्रभावती ने जो हरिवल्लभा एकादशी का व्रत किया है, वह भगवान विष्णु की अत्यंत प्रिय है। इस व्रत का फल अद्वितीय है, और इसके कारण ही प्रभावती को विष्णुलोक प्राप्त हो रहा है।’

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धर्मराज ने आगे कहा, ‘इस एकादशी का महत्त्व इतना महान है कि जो व्यक्ति इसे श्रद्धा और नियमपूर्वक करता है, उसे भगवान विष्णु की कृपा से वह सभी सुख प्राप्त होते हैं, जो अन्य किसी भी साधना या दान से संभव नहीं हो सकते। हरिवल्लभा एकादशी का पालन करने वाला व्यक्ति सभी प्रकार के दुखों से मुक्त होकर विष्णुलोक को प्राप्त करता है। यही कारण है कि ब्राह्मणी प्रभावती ने तुम्हारे सारे दान-पुण्य को पीछे छोड़ते हुए विष्णुलोक का स्थान प्राप्त किया है।’

यह सुनकर राजा वभ्रुवाहन ने भगवान विष्णु की महिमा को समझा और अपनी भूल को स्वीकार किया। उसने मन ही मन यह संकल्प लिया कि अगर उसे फिर से जीवन मिले, तो वह भी इस पवित्र व्रत का पालन करेगा।

सूतजी ने आगे कहा— “हे मुनियो! इस प्रकार राजा वभ्रुवाहन और ब्राह्मणी प्रभावती की कथा हमें यह सिखाती है कि हरिवल्लभा एकादशी का व्रत भगवान विष्णु के प्रति अत्यंत प्रिय है। इस व्रत के पालन से न केवल जीवन में सुख और समृद्धि प्राप्त होती है, बल्कि मृत्यु के बाद विष्णुलोक की प्राप्ति भी सुनिश्चित होती है। जो व्यक्ति इस व्रत को श्रद्धा और भक्तिभाव से करता है, उसे जीवन में कभी भी किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता।”

इति परमा एकादशी व्रत कथा सम्पूर्ण।

श्री मन नारायण-नारायण-नारायण। भज मन नारायण-नारायण-नारायण। श्री हरिवल्लभा एकादशी की जय!

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