हिन्दू शास्त्रों में वर्णित है कि सत्यनारायण भगवान व्रत कथा का हृदय से पाठ करने पर व्यक्ति को एक हजार यज्ञ के बराबर पुण्य मिलता है। सत्यनारायण भगवान की व्रत कथा में भगवान श्रीहरि के बारे में वृतांत मिलता है। इस कल्याणकारी व्रत का श्रवण करने से घर में सुख, शांति और समृद्धि का वास होता है और श्रीहरि की हमेशा कृपा बना रहती है।
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॥ प्रथम अध्याय ॥
नैमिषारण्य तीर्थ एक ऐसा स्थान था, जहाँ पवित्र नदियों और वृक्षों की छाया में ऋषि-मुनि ध्यान और तपस्या किया करते थे। एक बार, वहाँ शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि एकत्रित हुए और सभी ने मिलकर धर्म और भक्ति का महत्त्व जानने के उद्देश्य से श्री सूतजी से प्रश्न किया।
उन्होंने पूछा, “हे प्रभु! इस कलियुग के कठिन समय में, जब मनुष्यों के पास वेद-विद्या का ज्ञान नहीं है और वे भक्ति मार्ग से दूर हो रहे हैं, तब वे प्रभु की भक्ति कैसे प्राप्त करेंगे? किस प्रकार उनके दुखों का अंत होगा और उद्धार संभव होगा? क्या कोई ऐसा सरल तप या व्रत है, जिसके पालन से थोड़े समय में पुण्य की प्राप्ति हो सके और मनवांछित फल मिल सके?”
श्री सूतजी, जो सर्वज्ञ थे, ऋषियों की इस विनम्र जिज्ञासा पर प्रसन्न हुए और बोले, “हे मुनि श्रेष्ठों! आप सभी ने प्राणियों के उद्धार का जो प्रश्न किया है, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। अब मैं आप सभी को एक ऐसा श्रेष्ठ व्रत सुनाने जा रहा हूँ, जिसे नारदजी ने स्वयं श्री लक्ष्मीनारायण जी से प्राप्त किया था। यह व्रत कलियुग के समस्त दुःखों से मुक्ति दिलाने में सक्षम है और प्रभु भक्ति की सरलतम विधि है। अब आप सब ध्यानपूर्वक सुनें।”
नारदजी का भ्रमण और विष्णुलोक की यात्रा
एक समय की बात है, जब देवर्षि नारदजी, जो सदा दूसरों के कल्याण की कामना करते थे, ब्रह्मांड के विभिन्न लोकों में भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वे मृत्यु-लोक में आ पहुँचे। यहाँ उन्होंने देखा कि मनुष्य अनेक योनियों में जन्म लेकर अपने कर्मों के अनुसार दुःख भोग रहे हैं। उन्हें तरह-तरह की कष्टदायक परिस्थितियों में घिरा देखकर नारदजी का हृदय द्रवित हो उठा। वे सोचने लगे, “कैसे इन दुःखी जीवों का उद्धार किया जा सकता है? कौन सा ऐसा उपाय है, जिससे इनका कल्याण हो सके और ये सभी दुःखों से मुक्ति पा सकें?”
यह सोचकर नारदजी ने विष्णुलोक की यात्रा करने का निश्चय किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने श्रीहरि नारायण के दिव्य स्वरूप के दर्शन किए। भगवान विष्णु श्वेत वर्ण के थे, उनके चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभायमान थे, और उनके गले में वरमाला थी। नारदजी ने उन्हें प्रणाम किया और स्तुति करते हुए कहा, “हे प्रभु! आप सर्वशक्तिमान हैं, आपकी महिमा अनंत है। आप निर्गुण, निराकार, और सृष्टि के कर्ता हैं। आप भक्तों के दुःखों का नाश करने वाले हैं। आपको मेरा नमस्कार है।”
श्री नारायण ने नारदजी की स्तुति सुनकर उनसे स्नेहपूर्वक पूछा, “हे मुनि श्रेष्ठ! कहो, तुम्हारे मन में क्या है? तुम किस उद्देश्य से यहाँ आए हो? निःसंकोच अपनी बात कहो।”
तब नारद मुनि ने कहा, “हे प्रभु! मैं मृत्यु-लोक में भ्रमण कर रहा था और वहाँ मैंने देखा कि मनुष्य अपने-अपने कर्मों से बंधे हुए अनेक कष्टों में डूबे हुए हैं। कृपया मुझ पर दया करके बताइए, कि वे मनुष्य थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे इन दुःखों से मुक्ति पा सकते हैं?”
श्री नारायण का उपदेश
भगवान विष्णु मुस्कुराए और बोले, “हे नारद! तुमने मनुष्यों के कल्याण की बहुत ही उत्तम बात पूछी है। मैं तुम्हें एक ऐसा व्रत बताने जा रहा हूँ, जिसे करने से मनुष्य मोह-माया से मुक्त हो सकता है और उसके सारे दुःखों का नाश हो जाता है। यह व्रत पुण्य देने वाला है, और मृत्यु-लोक में अत्यंत दुर्लभ है। इसे करने से मनुष्य इस संसार में सुख भोगता है और मरने के पश्चात मोक्ष की प्राप्ति करता है। यह व्रत है – श्री सत्यनारायण व्रत।”
नारदजी ने उत्सुकता से पूछा, “हे प्रभु! उस व्रत का विधान क्या है? उसे किस दिन करना चाहिए? और कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं?”
भगवान विष्णु ने उत्तर दिया, “यह व्रत अत्यंत सरल है, किंतु इसके प्रभाव अपार हैं। यह व्रत मनुष्यों को दुःख, शोक, दरिद्रता, और संकटों से मुक्ति दिलाता है। इसके करने से धन-धान्य, सौभाग्य, और संतान की प्राप्ति होती है। यह व्रत भक्त को हर क्षेत्र में विजय दिलाने वाला है। इसे किसी भी दिन, भक्तिपूर्वक, संध्या समय किया जा सकता है।”
“पूजा की विधि इस तरह से है कि सबसे पहले अपने घर में पवित्रता का पूर्ण ध्यान रखते हुए, एक वेदी बनाएँ और उसके ऊपर श्री भगवान सत्यनारायण की मूर्ति या चित्र जो भी उपलब्ध हो स्थापित करें। फिर फल, फूल, दूध, घी, गेहूँ के चूर्ण से बनी वस्तुओं, और केले के फल का नैवेद्य भगवान को अर्पित करें। यदि गेहूँ उपलब्ध न हो, तो साठी के चावल का चूर्ण और गुड़ अथवा शक्कर का प्रयोग करें। पूजा के बाद ब्राह्मणों और बंधु-बांधवों को भोजन कराएँ और स्वयं भी भोजन करें। पूजा के समय गीत, नृत्य, और भजन कीर्तन करें, जिससे वातावरण पवित्र और भक्तिमय हो। इस व्रत को श्रद्धा और भक्ति से करने पर हर मनोकामना पूर्ण होती है।”
सत्यनारायण व्रत का प्रभाव
भगवान बोलें, “इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति को भौतिक सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है, इसके साथ ही यह व्रत मुक्ति (मोक्ष) का मार्ग भी प्रदान करता है। विशेषकर कली काल मे (कलियुग), जब मनुष्य अज्ञान और पाप के अंधकार में डूबा हुआ होता है, तब यह व्रत उसे सरलता से प्रभु की शरण में पहुँचा सकता है। जो व्यक्ति इस व्रत को श्रद्धा-भाव से करता है, वह इस संसार के सभी दुःखों से मुक्त होकर अंततः परम शांति प्राप्त करता है।”
भगवान के वचन सुनकर नारदजी ने उन्हें धन्यवाद दिया और वे विष्णुलोक से प्रसन्नचित्त होकर लौट आए। उन्होंने इस व्रत का प्रचार-प्रसार किया, और इसके प्रभाव से अनगिनत लोगों का उद्धार हुआ।
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रथम अध्याय सम्पूर्ण ॥
श्री सत्यनारायण भगवान की जय!
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॥ द्वितीय अध्याय ॥
सूतजी बोले— “हे ऋषियों! आपने यह जानने की इच्छा की है कि किसने पहले सत्यनारायण व्रत किया और इसके प्रभाव से कौन-कौन सा लाभ पाया। अब मैं उस पहले ब्राह्मण की कथा विस्तार से सुनाता हूँ। यह कथा काशीपुरी के एक निर्धन ब्राह्मण की है, जिसे भगवान ने अपने अनुग्रह से समस्त कष्टों से मुक्त किया। ध्यानपूर्वक सुनिए।”
प्राचीन काल की बात है, काशी नगरी में एक ब्राह्मण निवास करता था, जो अत्यंत निर्धन था। वह निर्धनता के कारण हमेशा दुःखी और भूख-प्यास से व्याकुल होकर नगर में भिक्षा के लिए इधर-उधर भटकता रहता था। कई दिन तो उसे भिक्षा में कुछ भी प्राप्त नहीं होता, और वह निराश होकर निःशक्त भाव से पृथ्वी पर बैठा करता। उसकी यही दशा भगवान सत्यनारायण ने देखी और उसके उद्धार के लिए एक योजना बनाई।
भगवान का ब्राह्मण रूप में आगमन
एक दिन, भगवान सत्यनारायण ने स्वयं ब्राह्मण का रूप धारण किया और उस निर्धन ब्राह्मण के पास पहुँचे। उनके रूप को देखकर कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि यह स्वयं भगवान हैं। वे वृद्ध ब्राह्मण की वेशभूषा में उसके पास आए और स्नेहपूर्वक उससे बोले, “हे विप्र! तुम दिन-रात दुःखी और भूखे-प्यासे क्यों पृथ्वी पर भटक रहे हो? बताओ, तुम्हारी इस अवस्था का क्या कारण है?”
वह निर्धन ब्राह्मण, जो अपनी दशा से पहले ही अत्यंत हताश था, करुण स्वर में बोला, “हे प्रभु! मैं एक निर्धन ब्राह्मण हूँ। भिक्षा मांगने के लिए नगर में भटकता हूँ, किंतु कई दिनों से मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। यदि आप मेरी सहायता कर सकते हैं या इस निर्धनता से उबरने का कोई उपाय जानते हैं, तो कृपया मुझे बताइए।”
तब उस ब्राह्मण रूप में प्रकट हुए भगवान बोले, “हे विप्र! मैं तुम्हें एक ऐसा उपाय बताने जा रहा हूँ, जिससे तुम्हारी समस्त समस्याएँ समाप्त हो जाएंगी। यह उपाय सरल है और इसका प्रभाव महान है। यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है। इसे करने से समस्त दुःखों का नाश होता है और मनुष्य की हर मनोकामना पूर्ण होती है।”
उन्होंने ब्राह्मण को व्रत की पूरी विधि समझाई— किस प्रकार से सत्यनारायण भगवान की पूजा करनी चाहिए, कौन-कौन सी सामग्री का उपयोग करना चाहिए, और किस प्रकार से विधिपूर्वक व्रत संपन्न करना चाहिए। व्रत के विधान को विस्तार से समझाकर वे वृद्ध ब्राह्मण का रूप त्याग कर अंतर्धान हो गए।
ब्राह्मण का संकल्प और व्रत का पालन
उस ब्राह्मण ने सोचा, “भगवान ने स्वयं मुझे व्रत की विधि बताई है। अब मैं यह व्रत अवश्य करूंगा।” इस विचार ने उसके हृदय में उत्साह भर दिया, और वह रातभर इस विचार से सो न सका। अगले दिन सुबह होते ही वह ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने का निश्चय कर भिक्षा के लिए नगर की ओर चल पड़ा।
उस दिन उसकी भिक्षा में अत्यंत आश्चर्यजनक रूप से बहुत सारा धन प्राप्त हुआ। उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो भगवान ने उसकी भिक्षा को स्वयं अपना आशीर्वाद प्रदान किया हो। फिर वह उस धन से सारी सामग्री जुटाकर अपने बंधु-बांधवों के साथ सत्यनारायण भगवान का व्रत करने में जुट गया। इस व्रत के संपन्न होते ही उसकी निर्धनता समाप्त हो गई। उसकी झोली धन-धान्य से भर गई और उसका जीवन पूर्णतः बदल गया। अब वह प्रत्येक मास इस व्रत का पालन करने लगा और सत्यनारायण भगवान की कृपा से उसकी सारी इच्छाएँ पूर्ण होने लगीं।
व्रत का प्रभाव और विस्तार
ऋषियों की जिज्ञासा को शांत करते हुए सूतजी बोले, “हे मुनिश्रेष्ठों! जो व्यक्ति इस सत्यनारायण व्रत को श्रद्धा और विश्वासपूर्वक करता है, उसके सभी पाप धुल जाते हैं और उसे अंततः मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने वाला मनुष्य समस्त दुःखों और संकटों से मुक्त हो जाता है। उस ब्राह्मण के बाद जिसने भी यह व्रत किया, उसे अद्भुत लाभ प्राप्त हुए। अब मैं आपको एक और कथा सुनाता हूँ, जो इस व्रत के महात्म्य को और अधिक विस्तार से प्रकट करती है।”
लकड़हारे की कथा
एक समय की बात है, जब वह विप्र ब्राह्मण अपने बंधु-बांधवों के साथ सत्यनारायण व्रत करने के लिए तैयार हो रहा था, तभी एक वृद्ध लकड़हारा उनके घर आया। लकड़हारे ने बाहर अपनी लकड़ियों का बोझ रख दिया और भीतर आकर उस ब्राह्मण से पूछा, “हे विप्र! आप यहाँ क्या कर रहे हैं और यह व्रत किसका है? कृपया मुझे बताइए कि इस व्रत का क्या लाभ होता है?”
ब्राह्मण ने जवाब दिया, “यह भगवान सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला है। इसी चमत्कारिक व्रत के प्रभाव से मेरे जीवन में सुख-शांति की वृद्धि हुई है।”
लकड़हारा, जो पहले से ही प्यास और थकान से व्याकुल था, यह सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने व्रत का चरणामृत ग्रहण किया और प्रसाद भी पाया। व्रत की महिमा को सुनकर उसके मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि “आज जो भी धन मुझे लकड़ी बेचने से प्राप्त होगा, उससे मैं सत्यनारायण भगवान का व्रत करूंगा।”
उसने अपने सिर पर लकड़ियों का बोझ उठाया और उस नगर की ओर चला, जहाँ धनवान लोग रहते थे। आश्चर्यजनक रूप से, उस दिन उसे लकड़ियों का मूल्य पहले से चार गुना अधिक प्राप्त हुआ। प्रसन्नचित्त होकर वह वृद्ध लकड़हारा धन लेकर बाजार से पके केले, शक्कर, घी, दूध, दही, और गेहूँ का चूर्ण खरीदकर अपने घर गया। फिर उसने अपने भाई-बांधवों को बुलाया और विधिपूर्वक सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत संपन्न किया।
व्रत का अद्भुत फल
उस व्रत के प्रभाव से वह वृद्ध लकड़हारा धन, पुत्र, और अनेक प्रकार की समृद्धि से युक्त हो गया। अब उसका जीवन पहले की तुलना में अधिक सुखमय हो गया था। उसने संसार के समस्त सुखों का भोग किया और अंततः अपनी मृत्यु के समय बैकुंठ धाम को प्राप्त हुआ। यह सब सत्यनारायण भगवान के व्रत के प्रभाव से संभव हुआ।
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण ॥
श्री सत्यनारायण भगवान की जय!
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॥ तृतीय अध्याय ॥
सूतजी बोले— “हे श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं आपको आगे की कथा विस्तारपूर्वक सुनाता हूँ। यह कथा एक महान और बुद्धिमान राजा की है, जिसका नाम उल्कामुख था। राजा सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था, अर्थात वह सत्य बोलने वाला और अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला था। प्रतिदिन वह देव-स्थानों पर जाता, पूजा-अर्चना करता और गरीबों को दान देकर उनके कष्टों का निवारण करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली थी और वह सती-साध्वी नारी थी। वे दोनों सत्यनिष्ठा और धर्म में विश्वास रखते थे और दीन-दुखियों की सेवा करते थे।
एक बार, वे दोनों भद्रशीला नदी के तट पर भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करने के लिए उपस्थित हुए। दोनों ने विधिपूर्वक व्रत का संकल्प किया और भगवान की पूजा आरम्भ की। उसी समय वहाँ एक साधु नामक वैश्य आया, जो एक व्यापारी था और व्यापार के लिए बहुत सारा धन लेकर आया था। साधु ने राजा को व्रत करते देखा और उनके पास जाकर विनयपूर्वक पूछा, ‘हे राजन्! आप यह इतने शांत चित्त से क्या कर रहे हैं? कृपया मुझे बताइए, मेरी इच्छा है कि मैं इसके बारे में जानूँ।’
राजा उल्कामुख ने कहा, ‘हे साधु! मैं और मेरी पत्नी भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत कर रहे हैं। यह व्रत अत्यंत फलदायी और मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। हम इस व्रत को पुत्रादि की प्राप्ति के लिए कर रहे हैं।’
साधु ने राजा के वचन सुनकर आदरपूर्वक कहा, ‘हे राजन्! कृपया मुझे इस व्रत की पूरी विधि बताइए। मैं भी आपकी तरह इस व्रत को करूंगा। मेरे भी कोई संतान नहीं है, और मुझे विश्वास है कि इस व्रत से अवश्य ही संतान की प्राप्ति होगी।’
राजा ने उसे व्रत की सारी विधि विस्तार से बताई। साधु व्यापारी वह सब सुनकर अत्यंत आनंदित हुआ और व्यापार का कार्य पूरा कर, प्रसन्नता के साथ अपने घर लौट गया। उसने अपनी पत्नी लीलावती से इस व्रत का वर्णन किया और कहा, ‘जब हमारे घर संतान होगी, तब हम इस व्रत को करेंगे।’
लीलावती और साधु की संतान
साधु व्यापारी ने अपनी पत्नी लीलावती से यह संकल्प किया कि संतान होने पर वह सत्यनारायण भगवान का व्रत करेगा। एक दिन, लीलावती अपने पति के साथ प्रसन्नतापूर्वक सत्यनारायण भगवान का ध्यान करती हुई सांसारिक जीवन में प्रवृत्त हुई और भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उनके घर एक सुंदर कन्या का जन्म हुआ। दिनोंदिन वह कन्या इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है। उन्होंने अपनी पुत्री का नाम ‘कलावती’ रखा।
जब कलावती थोड़ी बड़ी हुई, तब लीलावती ने अपने पति से मधुर वचनों में कहा, ‘हे स्वामी! आपने संकल्प किया था कि जब हमारे घर संतान होगी, तब आप सत्यनारायण भगवान का व्रत करेंगे। अब कृपया आप इस व्रत को संपन्न कीजिए।’
साधु व्यापारी ने उत्तर दिया, ‘हे प्रिये! मैं इस व्रत को अवश्य करूंगा, किंतु अभी नहीं। जब हमारी पुत्री का विवाह होगा, तभी मैं इस व्रत को करूंगा।’ इस प्रकार, साधु ने अपनी पत्नी को आश्वासन दिया और व्यापार के लिए नगर की ओर चला गया।
कलावती का विवाह
समय बीतता गया, और कलावती दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। वह अब एक सुंदर और गुणवान कन्या बन चुकी थी। जब साधु व्यापारी ने नगर में अपनी पुत्री को उसकी सखियों के साथ देखा, तो उसके मन में विचार आया कि अब उसके विवाह का समय आ गया है। उसने तुरंत एक दूत को बुलाकर कहा, ‘जाओ और नगर में एक योग्य वर ढूंढकर लाओ, जिससे मैं अपनी पुत्री का विवाह कर सकूं।’
दूत कंचन नगर पहुँचा, जहाँ उसने एक सुंदर और सुयोग्य वणिक-पुत्र को देखा। वह लड़का हर दृष्टि से योग्य था और साधु व्यापारी की पुत्री कलावती के लिए एक आदर्श वर था। दूत उसे लेकर साधु व्यापारी के पास आया। लड़के को देखकर साधु अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने अपने बंधु-बांधवों सहित धूमधाम से अपनी पुत्री का विवाह उस वणिक-पुत्र के साथ कर दिया। किन्तु, विवाह की धूमधाम में साधु व्रत का संकल्प करना भूल गया, जो उसने पहले किया था।
भगवान का क्रोध और शाप
विवाह के समय व्रत को भूल जाने के कारण भगवान श्री सत्यनारायण क्रोधित हो गए। उन्होंने साधु और उसके परिवार को शाप दिया कि उन्हें जीवन में दारुण दुःख सहना पड़ेगा। साधु व्यापारी, जो अपने कार्य में अत्यंत कुशल था, अपनी पुत्री के पति के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नगर गया। वहाँ ससुर-जमाई दोनों राजा के राज्य में व्यापार करने लगे।
राजा का धन चोरी और साधु पर आरोप
एक दिन, सत्यनारायण भगवान की माया से प्रेरित होकर एक चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था। किंतु राजा के दूतों को आता देख, वह चोर घबराकर राजा का धन वहीं छोड़ गया, जहाँ साधु व्यापारी और उसका दामाद ठहरे हुए थे। जब राजा के दूतों ने वहाँ राजा का धन रखा देखा, तो उन्होंने बिना कोई विचार किए साधु व्यापारी और उसके दामाद को चोर समझ लिया और दोनों को बाँधकर राजा के समक्ष ले गए। प्रसन्नता से दौड़ते हुए दूतों ने राजा से कहा, ‘हे महाराज! हमने दो चोर पकड़े हैं। कृपया इन्हें देखकर अपनी आज्ञा दें।’
राजा चन्द्रकेतु ने उनकी बात सुनकर दोनों को कैद करने का आदेश दिया और उनका सारा धन छीन लिया। भगवान सत्यनारायण के शाप के कारण उनकी पत्नी लीलावती भी घर पर अत्यंत दुःखी थी। उनके घर में रखा सारा धन चोरों ने चुरा लिया। शारीरिक, मानसिक पीड़ा और भूख-प्यास से त्रस्त होकर, उनकी पुत्री कलावती ने अन्न की चिंता में एक ब्राह्मण के घर शरण ली।
कलावती का सत्यनारायण व्रत से साक्षात्कार
ब्राह्मण के घर कलावती ने सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा। उसने वहाँ कथा सुनी और व्रत का प्रसाद ग्रहण किया। रात को जब वह घर लौटी, तो उसकी माता लीलावती ने उससे पूछा, ‘हे पुत्री! अब तक कहाँ रही और तुम्हारे मन में क्या है?’
कलावती ने उत्तर दिया, ‘हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत देखा और उसकी कथा सुनी।’
कन्या के वचन सुनकर लीलावती ने तत्काल भगवान के पूजन की तैयारी की। उसने परिवार और बंधु-बांधवों के साथ भगवान श्री सत्यनारायण का विधिपूर्वक पूजन और व्रत किया। उसने प्रार्थना की, ‘हे प्रभु! हमारे पति और दामाद को शीघ्र घर लाओ और हमारे सभी अपराध क्षमा करो।’
भगवान की कृपा और राजा का स्वप्न
लीलावती और उसके परिवार की प्रार्थना से संतुष्ट होकर भगवान श्री सत्यनारायण ने राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, ‘हे राजन्! जिन दो व्यक्तियों को तुमने चोर समझकर कैद किया है, वे निर्दोष हैं। प्रातः काल उन्हें छोड़ दो और उनका सारा धन जो तुमने लिया है, उन्हें वापस कर दो। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे, तो मैं तुम्हारा राज्य, धन और पुत्र सब कुछ नष्ट कर दूंगा।’
स्वप्न में ऐसा आदेश देकर भगवान अंतर्धान हो गए। प्रातः काल राजा चन्द्रकेतु ने अपनी सभा में स्वप्न का वर्णन किया और तुरंत साधु व्यापारी और उसके दामाद को कैद से मुक्त कर सभा में बुलाया। दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया। राजा ने मधुर वचनों में कहा, ‘हे महानुभावों! भाग्यवश ऐसा कठिन दुःख तुम्हें सहना पड़ा, किंतु अब तुम निश्चिंत रहो। तुम्हें अब कोई भय नहीं है।’
इसके बाद राजा ने दोनों को नये वस्त्र और आभूषण पहनाए और उनका जितना धन लिया था, उससे दुगुना धन देकर आदरपूर्वक विदा किया। साधु व्यापारी और उसका दामाद प्रसन्न होकर अपने घर लौट आए।
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श्री सत्यनारायण भगवान की जय!
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॥ चतुर्थ अध्याय ॥
सूतजी बोले— “हे मुनियो! अब मैं श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत की चौथी कथा का वर्णन विस्तार से करता हूँ। यह कथा उस वैश्य साधु की है, जिसने अपने पूर्वजों की भांति भगवान श्री सत्यनारायण के व्रत का पालन नहीं किया और इसी कारण उसे अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
एक दिन, साधु वैश्य ने मंगलाचार कर भगवान का ध्यान किया और अपनी यात्रा प्रारम्भ की। वह अपनी नाव पर सवार होकर अपने नगर की ओर लौट रहा था। जैसे ही वह कुछ दूरी पर पहुँचा, मार्ग में उसे एक दण्डी वेशधारी महापुरुष दिखाई दिए। वे और कोई नहीं, स्वयं श्री सत्यनारायण भगवान थे, जो साधु का परीक्षण लेने के लिए वहां दण्डी रूप में उपस्थित हुए थे।
दण्डी रूपधारी भगवान ने साधु से पूछा, ‘हे साधु! तेरी नाव में क्या है?’
साधु वैश्य, जो अभिमान से भरा हुआ था, हँसते हुए बोला, ‘हे दण्डी! आप क्यों पूछते हैं? क्या आप मेरी संपत्ति पर नजर लगाए हुए हैं? मेरी नाव में तो केवल बेल-पत्ते हैं, धन नहीं है।’
साधु का यह कठोर वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान ने कहा, ‘तथास्तु! जैसा तुमने कहा है, वैसा ही हो।’ इतना कहकर भगवान वहां से कुछ दूरी पर समुद्र किनारे बैठ गए।
वास्तविकता का सामना
जब दण्डी वहाँ से चले गए, साधु ने अपनी नित्य क्रिया समाप्त की। उसने अपनी नाव को देखा, तो उसकी आँखें विस्मय से फैल गईं। वह देखता है कि उसकी नाव, जो पहले माल और धन से भरी हुई थी, अब वास्तव में बेल-पत्तों से भर गई थी। यह देखकर वह आश्चर्यचकित हो गया और अत्यन्त शोक में डूब गया। इस विपत्ति को देखकर वह मूर्च्छित हो गया और जमीन पर गिर पड़ा।
कुछ समय बाद जब उसकी मूर्च्छा टूटी, तो वह अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगा। उसका दामाद, जो उसके साथ था, बोला, ‘हे पिता! इस शोक में मत डूबिए। यह सब भगवान श्री सत्यनारायण के क्रोध का परिणाम है। हमें शीघ्रता से उनकी शरण में जाना चाहिए और उनसे क्षमा याचना करनी चाहिए। तभी यह विपत्ति दूर हो सकती है और हमारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो सकती हैं।’
दामाद की सलाह मानकर साधु भगवान के पास पहुँचा, जो दण्डी रूप में समुद्र किनारे बैठे थे। साधु ने अत्यन्त भक्तिभाव से भगवान को नमस्कार किया और कहा, ‘हे प्रभु! मुझसे जो भी अपराध हुआ है, उसे क्षमा कर दें। मैंने आपको असत्य वचन कहा था, जिसके कारण यह विपत्ति आई है। अब मैं आपकी शरण में हूँ। कृपया मुझे क्षमा करें।’
साधु अपने वचनों पर अत्यन्त लज्जित था और शोकातुर होकर भगवान के चरणों में गिर पड़ा। वह रो-रोकर क्षमा याचना करने लगा।
भगवान की कृपा और साधु का पश्चाताप
भगवान श्री सत्यनारायण, जो अपने भक्तों पर अत्यन्त कृपालु हैं, साधु की यह करुण विनती सुनकर बोले, ‘हे वणिक-पुत्र! मेरी आज्ञा से ही तुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है। तुने बार-बार मेरी पूजा की अवहेलना की और अभिमानवश अपने जीवन में भक्ति का पालन नहीं किया। इसी कारण तुझे यह कष्ट सहना पड़ा।’
साधु अत्यन्त विनम्रता से बोला, ‘हे प्रभु! आपकी माया से ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जैसे महान देवता भी आपके स्वरूप को नहीं समझ सकते। तब मैं अज्ञानी मनुष्य आपको कैसे पहचान सकता हूँ? कृपया मुझ पर दया करें और मेरी रक्षा करें। मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी विधिपूर्वक पूजा करूँगा। कृपया मेरी नाव को फिर से धन-धान्य से परिपूर्ण कर दें।’
साधु के भक्तिपूर्ण वचन सुनकर भगवान श्री सत्यनारायण प्रसन्न हो गए। उन्होंने साधु को आशीर्वाद दिया और उसकी नाव को फिर से धन-धान्य से भर दिया। इसके बाद भगवान अन्तर्धान हो गए।
नाव में पुनः धन प्राप्ति
साधु ने जब अपनी नाव पर जाकर देखा, तो उसकी नाव अब पहले की भांति धन और माल से भर गई थी। वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और श्री सत्यनारायण भगवान का विधिपूर्वक पूजन किया। इसके बाद वह अपने दामाद और अन्य साथियों सहित अपने नगर की ओर चल पड़ा।
घर में आगमन और कलावती की भूल
जब साधु नगर में पहुँचा, तो उसने दूत को अपने घर पर भेजा। उस दूत ने साधु के घर जाकर उसकी पत्नी को आदरपूर्ण नमस्कार किया और बोला, ‘आपके पति अपने दामाद के साथ नगर के समीप पहुँच गए हैं। वे शीघ्र ही यहाँ आएंगे।’
दूत का यह वचन सुनकर साधु की पत्नी अत्यन्त प्रसन्न हुई। उसने तत्काल भगवान श्री सत्यनारायण का पूजन किया और अपनी पुत्री कलावती से कहा, ‘हे पुत्री! मैं अपने पति के स्वागत के लिए जा रही हूँ। तू पूजन कार्य पूर्ण कर और शीघ्र हमारे पास आ जा।’
माता के वचन सुनकर कलावती प्रसाद ग्रहण किए बिना जल्दी में अपने पति के पास चली गई। उसने भगवान के प्रसाद का अनादर किया, जो भगवान श्री सत्यनारायण को रुष्ट कर गया।
भगवान का क्रोध और कलावती का पति डूबा
भगवान श्री सत्यनारायण ने कलावती के पति को नाव सहित समुद्र में डुबो दिया। जब कलावती अपने पति को न देखकर अत्यन्त दुखी हो गई, तो वह विलाप करते हुए जमीन पर गिर पड़ी। उसने रोते हुए अपनी मूर्छा खो दी और अपने पति को न देखकर अत्यन्त शोक में डूब गई।
साधु, जो इस घटना का साक्षी था, अत्यन्त दुःखी होकर भगवान से प्रार्थना करने लगा, ‘हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से जो भी भूल हुई है, उसे क्षमा करें। कृपया हमारे दुःख को हर लें।’
साधु की यह दीन वाणी सुनकर भगवान श्री सत्यनारायण प्रसन्न हो गए। तभी आकाशवाणी हुई, ‘हे साधु! तेरी पुत्री ने मेरे प्रसाद का अपमान किया है, इसीलिए उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि वह घर जाकर प्रसाद ग्रहण करे, तो उसका पति पुनः उसे मिल जाएगा।’
कलावती को पति की प्राप्ति
आकाशवाणी सुनकर कलावती तुरंत अपने घर लौटी। उसने प्रसाद ग्रहण किया और फिर अपने पति को देखने के लिए वापस समुद्र तट पर गई। वहाँ पहुँचने पर उसने देखा कि उसका पति सुरक्षित है और नाव भी फिर से पानी में तैर रही है। उसे देखकर उसका हृदय प्रसन्नता से भर गया।
पूजन और परिवार का सुख
इसके बाद साधु ने अपने बंधु-बांधवों सहित विधिपूर्वक भगवान श्री सत्यनारायण का पूजन किया और उनसे क्षमा याचना की। भगवान की कृपा से उसका परिवार फिर से सुखी हो गया। उसने इस लोक में सभी सुखों का उपभोग किया और अंत में स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ।
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का चतुर्थ अध्याय सम्पूर्ण ॥
श्री सत्यनारायण भगवान की जय!
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॥ पंचम अध्याय ॥
सूतजी बोले— “हे ऋषियो! अब मैं तुमसे भगवान श्री सत्यनारायण के महिमा-पूर्ण व्रत की और भी कथा सुनाता हूँ। यह कथा राजा तुंगध्वज की है, जो प्रजा पालन में लीन रहने वाले एक धर्मात्मा राजा थे। किंतु एक बार उनके अहंकार ने उन्हें महान दुःख का भागी बना दिया। भगवान के प्रसाद का त्याग करने के कारण उन्हें अपनी सारी संपत्ति और वैभव खोना पड़ा। उनके जीवन की यह कथा हमें यह सिखाती है कि भगवान श्री सत्यनारायण के व्रत और प्रसाद का अनादर करने का परिणाम कितना भयंकर हो सकता है।
राजा तुंगध्वज का वन में प्रवेश
एक समय की बात है, राजा तुंगध्वज अपने सैनिकों और सेवकों के साथ वन में गए। उन्होंने वन्य पशुओं का शिकार किया और थकान महसूस होने पर वे एक विशाल बड़ के पेड़ के नीचे विश्राम करने के लिए रुके। उसी स्थान पर कुछ ग्वाले अपने परिवार और मित्रों सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन कर रहे थे। वे भक्ति भाव से पूजा अर्चना कर रहे थे और भगवान की महिमा का गान कर रहे थे।
राजा ने जब यह दृश्य देखा, तो उनके मन में यह विचार आया कि ग्वाल जैसे साधारण लोग भी भगवान के प्रति इतनी भक्ति रखते हैं। किंतु, अपने राजसी अभिमान के कारण वे वहाँ न तो रुके और न ही उन्होंने भगवान की पूजा में सम्मिलित होने का विचार किया। वे वहाँ से बिना प्रणाम किए आगे बढ़ गए। उनके अहंकार ने उन्हें भगवान के प्रसाद का अपमान करने पर विवश कर दिया।
भगवान के प्रसाद का त्याग और विपत्ति का प्रारंभ
जब ग्वालों ने राजा को देखा, तो वे बहुत सम्मानपूर्वक उनके सामने आए और उन्हें श्री सत्यनारायण भगवान का प्रसाद अर्पित किया। किंतु राजा ने उस प्रसाद को भी ठुकरा दिया और अपने अभिमान के कारण बिना प्रसाद ग्रहण किए ही अपनी नगरी की ओर लौट गए।
राजा जब अपने महल पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि उनका सारा वैभव, धन-संपत्ति और राज्य का वैभव नष्ट हो चुका है। उनके घर में दुख और विपत्ति का साया छा गया था। उनकी प्रजा परेशान थी, उनके सैनिक असहाय थे, और उनका राज्य पूरी तरह से नष्ट हो गया था। राजा तुंगध्वज यह देखकर अत्यंत दुखी और शोकाकुल हो गए।
कुछ समय तक राजा को समझ नहीं आया कि यह विपत्ति क्यों आई है। वे बार-बार सोचने लगे कि किस कारण से उनके साथ ऐसा हुआ। तभी उन्हें ध्यान आया कि यह सब भगवान श्री सत्यनारायण के प्रसाद का अपमान करने के कारण हुआ है। उन्हें समझ में आ गया कि उनकी विपत्ति भगवान के क्रोध का परिणाम है।
ग्वालों के पास वापसी और भगवान से क्षमा-याचना
जब राजा को अपनी भूल का आभास हुआ, तो वे तुरंत उसी स्थान पर लौट गए जहाँ ग्वाल लोग श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे। उन्होंने अपनी गलती के लिए अत्यन्त पश्चाताप किया और ग्वालों से भगवान के प्रसाद का अनादर करने के लिए क्षमा माँगी। वे नम्रता से ग्वालों के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए और बोले, ‘हे भगवद्भक्तो! मैंने अपने अभिमान में आकर भगवान श्री सत्यनारायण के प्रसाद का अपमान किया है। मैं अपनी गलती के लिए अत्यन्त लज्जित हूँ। कृपया मुझे क्षमा करें और मुझे भगवान के व्रत और पूजन की विधि बताएं ताकि मैं स्वयं विधिपूर्वक भगवान का पूजन कर सकूं।’
ग्वालों ने राजा की विनम्रता देखकर उन्हें क्षमा कर दिया और उन्हें भगवान श्री सत्यनारायण के व्रत की सम्पूर्ण विधि बताई। राजा तुंगध्वज ने विधिपूर्वक भगवान का पूजन किया और प्रसाद ग्रहण किया।
भगवान की कृपा से पुनः सुख-समृद्धि की प्राप्ति
जैसे ही राजा ने भक्तिभाव से श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया और प्रसाद ग्रहण किया, भगवान श्री सत्यनारायण उनकी पूजा से प्रसन्न हो गए। उनकी कृपा से राजा का सारा खोया हुआ वैभव और संपत्ति पुनः लौट आई। उनका राज्य पहले से भी अधिक सुखी और समृद्ध हो गया। प्रजा में फिर से शांति और प्रसन्नता का वातावरण छा गया।
राजा तुंगध्वज ने इसके बाद अपने जीवन के शेष समय तक न केवल भगवान श्री सत्यनारायण का विधिपूर्वक पूजन किया, बल्कि अपने राज्य में भी इस व्रत का प्रचार किया। उन्होंने अपने प्रजा को भी यह व्रत करने के लिए प्रेरित किया ताकि सबको भगवान की कृपा प्राप्त हो सके।
राजा का स्वर्गारोहण
कई वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य करने के बाद, जब राजा तुंगध्वज का समय पूरा हुआ, तब वे अपने कर्मों के फलस्वरूप और भगवान की भक्ति के कारण स्वर्गलोक को प्राप्त हुए।
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सत्यनारायण व्रत की महिमा
सूतजी आगे बोले— “हे मुनियो! श्री सत्यनारायण भगवान का यह व्रत अत्यन्त ही पुण्यदायक और दुर्लभ है। जो मनुष्य इस व्रत को भक्तिभाव से करेगा, उसे भगवान की कृपा से अपार धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन व्यक्ति धनी हो जाएगा, बन्धनों में जकड़े हुए लोग बन्धन से मुक्त हो जाएंगे और उनका जीवन पूर्णतः निर्भय हो जाएगा।
संतानहीन व्यक्ति को संतान प्राप्त होगी, और जो लोग किसी भी प्रकार की कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, उनके सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। अंततः वे अपने जीवन के समापन पर बैकुण्ठधाम को प्राप्त करेंगे, जहाँ भगवान श्री नारायण स्वयं विराजमान हैं।
पिछले जन्मों की कथा
अब मैं उन लोगों की कथा भी सुनाता हूँ, जिन्होंने पूर्वजन्म में इस व्रत को किया था और अगले जन्म में उच्च गति को प्राप्त हुए।
वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने अगले जन्म में सुदामा बनकर मोक्ष को प्राप्त किया।
लकड़हारा, जिसने पहले जन्म में श्री सत्यनारायण व्रत किया था, अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष को प्राप्त किया।
उल्कामुख नाम का राजा अगले जन्म में राजा दशरथ बनकर बैकुण्ठ को प्राप्त हुआ।
महाराज तुंगध्वज ने अगले जन्म में स्वयंभू बनकर भगवान श्री सत्यनारायण की भक्ति में लीन रहकर मोक्ष प्राप्त किया।
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का पंचम अध्याय सम्पूर्ण ॥
श्री मन नारायण-नारायण-नारायण। भज मन नारायण-नारायण-नारायण। श्री सत्यनारायण भगवान की जय!
इस प्रकार, सूतजी ने श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत की महिमा सुनाई। जो भी श्रद्धा और भक्ति से इस व्रत को करता है, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य को सम्पत्ति, सन्तान, और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
॥ इति श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सम्पूर्ण ॥ श्री सत्यनारायण भगवान की जय!
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