कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्य षष्ठी व्रत (छठ पूजा) बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह व्रत सूर्य देवता को समर्पित है, जिन्हें संपूर्ण ब्रह्मांड का पालनहार माना जाता है। व्रत करने वाली स्त्रियाँ अपने परिवार के कल्याण, समृद्धि, और जीवन की सुख-शांति के लिए यह कठिन तप करती हैं। सूर्य षष्ठी व्रत विशेष रूप से उत्तर भारत, बिहार, झारखंड, और नेपाल में गहराई से रचा-बसा हुआ है, लेकिन इसके दिव्य प्रभाव के कारण यह अन्य क्षेत्रों में भी प्रचलित हो चुका है।
यह व्रत तीन दिनों तक अत्यंत कठोरता से किया जाता है। पंचमी तिथि को केवल एक बार बिना नमक का भोजन करने का नियम है, और उसके बाद षष्ठी तिथि पर निर्जल रहकर व्रत करना पड़ता है। यह नियम अत्यधिक कठोर है, क्योंकि व्रती पूरे दिन जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं करती हैं। षष्ठी के दिन अस्त होते हुए सूर्य को विधिपूर्वक पूजा करके अर्घ्य देने का विधान है। सप्तमी के दिन प्रातःकाल सूर्योदय से पहले नदी या तालाब के जल में स्नान करके, उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, और तब जाकर व्रत को पूरा माना जाता है।
सूर्य षष्ठी का यह व्रत (छठ पूजा) केवल भक्ति और आस्था का ही नहीं, बल्कि संकल्प, शक्ति, और अनुशासन का भी प्रतीक है। इसमें न केवल व्यक्तिगत तपस्या होती है, बल्कि सम्पूर्ण समाज और परिवार की मंगलकामना भी निहित होती है। सूर्य देव की पूजा करके व्यक्ति जीवन की तमाम समस्याओं से उबर सकता है, और उसके जीवन में खुशहाली और संपन्नता का आगमन होता है।
इसे जरूर पढ़ें: द्रौपदी कूप, यही पर द्रौपदी ने दुशासन के खून से अपने केश धोये थे
सूर्य षष्ठी (छठ पूजा) की पौराणिक कथा
सूर्य षष्ठी व्रत (छठ पूजा) के साथ जुड़ी एक अत्यंत प्राचीन और प्रेरणादायक कथा है, जो हमें सिखाती है कि भगवान सूर्य की कृपा से जीवन की कठिनाइयाँ दूर हो सकती हैं। यह कथा हमें उस काल की ओर ले जाती है, जब विन्दुसार तीर्थ में महीपाल नामक एक धनी वणिक निवास करता था। महीपाल बहुत ही कठोर, स्वार्थी, और धर्म विरोधी व्यक्ति था। उसे ना तो धर्म में रुचि थी, और न ही किसी देवी-देवता की पूजा में। वह सदैव धार्मिक रीति-रिवाजों का मज़ाक उड़ाता था और अपने सामर्थ्य का दुरुपयोग करके दूसरों का अपमान करता था।
एक दिन महीपाल ने अपनी धृष्टता और अविवेक का परिचय देते हुए सूर्य भगवान की प्रतिमा के सामने मल-मूत्र त्याग दिया। यह एक अत्यंत घोर अपराध था, और उसके इस अपमानजनक कृत्य के कारण सूर्य भगवान का प्रकोप उस पर टूट पड़ा। थोड़े ही समय बाद उसकी आँखों की ज्योति समाप्त हो गई, और वह अंधकार में जीने के लिए मजबूर हो गया।
आँखों की ज्योति खो जाने के बाद महीपाल के जीवन में अंधकार छा गया। वह दुखी, हताश, और निराश हो गया, और उसे अपने किए गए पापों का पश्चाताप होने लगा। परंतु अब उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि वह अपने जीवन को किस प्रकार से समाप्त कर सके। इस निराशा में डूबा हुआ महीपाल एक दिन गंगा नदी की ओर चल पड़ा, ताकि वह वहाँ कूदकर अपने जीवन का अंत कर सके।
रास्ते में उसकी भेंट महर्षि नारद से हो गई। नारदजी ने देखा कि महीपाल अत्यधिक उदासी और निराशा में डूबा हुआ है। उन्होंने महीपाल से पूछा, “हे वणिक! इतनी जल्दी में तुम कहाँ जा रहे हो, और तुम इतने व्यथित क्यों हो?”
महीपाल ने नारदजी को अपनी सारी कथा सुनाई और रोते हुए कहा, “महर्षि! मैंने जीवन में बहुत पाप किए हैं। मैं अंधा हो गया हूँ, मेरी कोई आशा शेष नहीं बची है। अब मैं इस दुख से मुक्ति पाने के लिए गंगा में कूदकर अपना जीवन समाप्त करना चाहता हूँ।”
नारदजी ने उसे स्नेहपूर्वक समझाया और बोले, “मूर्ख प्राणी! तुम्हारी यह दशा सूर्य भगवान के अपमान के कारण हुई है। यदि तुम जीवन से हार मानकर इसे समाप्त कर दोगे, तो तुम्हें कभी शांति नहीं मिलेगी। परंतु यदि तुम सच्चे हृदय से भगवान सूर्य की आराधना करो, तो तुम्हारे सभी पापों का नाश होगा और तुम्हें जीवन में पुनः सुख-शांति प्राप्त होगी।”
नारदजी ने महीपाल को सूर्य षष्ठी व्रत का विधान बताया। उन्होंने कहा, “तुम कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्य षष्ठी व्रत का पालन करो। तीन दिनों तक कठोर उपवास रखो, और विधिपूर्वक भगवान सूर्य की पूजा करो। इससे तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जाएँगे, और तुम्हारी आँखों की ज्योति लौट आएगी।”
महीपाल ने नारदजी की बात मानी और सूर्य षष्ठी व्रत का कठोरता से पालन किया। उसने भक्ति और श्रद्धा से सूर्य देव की आराधना की। व्रत समाप्त होने पर, जब उसने सप्तमी के दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया, तो उसकी आँखों की ज्योति वापस लौट आई। उसका जीवन फिर से सुख-समृद्धि से परिपूर्ण हो गया, और उसने अपने किए पापों के लिए भगवान सूर्य से क्षमा माँगी। महीपाल ने अपनी भूल से सबक लिया और जीवन भर धर्म के मार्ग पर चलते हुए अन्य लोगों को भी इसी पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया।
इसे जरूर पढ़ें: हस्तिनापुर का पांडेश्वर महादेव मंदिर
सूर्य षष्ठी व्रत का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व
सूर्य षष्ठी व्रत (छठ पूजा) न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह जीवन के उच्चतम लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक साधन भी है। यह व्रत उस शक्ति और अनुशासन का प्रतीक है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन के तमाम दुखों और कठिनाइयों से उबर सकता है। व्रत करने वाली स्त्रियाँ अपने परिवार की सुख-समृद्धि, पति और पुत्र की लंबी आयु के लिए यह तप करती हैं। इस व्रत की कठिनाई और नियमों का पालन श्रद्धालु स्त्रियाँ अत्यंत अनुशासन और भक्ति के साथ करती हैं।
इस व्रत का एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यह व्यक्ति को उसके अहंकार, स्वार्थ, और पापों से मुक्त करता है। जैसे महीपाल ने अपने जीवन में हुए अपमानजनक कृत्य से सबक सीखा और भगवान सूर्य की कृपा से अपने जीवन को पुनः सही दिशा में मोड़ा, वैसे ही यह व्रत हमें भी यह सिखाता है कि यदि हम अपने दोषों का पश्चाताप करें और ईश्वर की सच्चे मन से आराधना करें, तो हमें जीवन में पुनः सुख और शांति मिल सकती है।
सूर्य षष्ठी व्रत (छठ पूजा) एक साधना है, जो व्यक्ति के भीतर आत्मिक जागरूकता लाता है और उसे जीवन के उच्चतम लक्ष्यों की ओर ले जाता है। यह व्रत हमें सिखाता है कि भगवान सूर्य की कृपा से हम अपने जीवन को सुधार सकते हैं, और उनके आशीर्वाद से हमें समृद्धि, शांति और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
इसे जरूर पढ़ें: माँ ताराचंडी मंदिर एक अद्भुत शक्तिपीठ, जो स्थित है सासाराम में
डिस्क्लेमर: इस लेख में दी गई जानकारी की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। यह सामग्री विभिन्न स्रोतों से संकलित की गई है और इसे केवल जानकारी के रूप में लिया जाना चाहिए। ये सभी बातें मान्यताओं पर आधारित है | adhyatmiaura.in इसकी पुष्टि नहीं करता |
Leave a Reply